पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४४१

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पंचदश अध्याय परिमाण-मान-व्यवहार का असाधारण कारण है । यह चार प्रकार है :--महत्, अणु, दीर्घत्व और हस्वल्व । नित्य पदार्थ का परिमाण नित्य है, और अनित्य पदार्थ का अनिस्य है । संख्या-द्वित्यादि संख्या अपेक्षा-बुद्धि से प्रसूत है। यह गणना-व्यवहार का निष्पादक गुण है। स्यत्व द्वारा एक वस्तु से अपर के पार्थक्य की प्रतीति होती है। संस्कार नामक एक गुण है। यह तीन प्रकार का है :-स्थितिस्थापक, भावना और वेग। यदि हम एक वृक्ष की शाला का आकर्षण कर छोड़ , तो यह स्थितिस्थापकसंस्कार गुण के योग से यथास्थान होती है। किमी विस्य का याभास होने से यह मन में श्रवस्थान करता है, यह भावनात्य संस्कार का फल है। एक बाण का निक्षेप करने से वह बहुत दूर जाता है, यह वेगाख्य संस्कार है। स्थविरवादियों की २४ उपादाय रूपों की सूची में रूप लघुता, मृदुता, कर्मण्यता है। 'स्थितिस्थापक' चित्त-विप्रयुक्त संस्कार भी इन गुणों के नुल्प विशेष धर्म है, यद्यपि बौद्ध गुण-गुणी के बाद को नहीं मानते, इनमें एक प्रकार का सादृश्य है, यथा-वैशेषिकों का सामान्य और निकाय-सभागता प्रायः एक है । अन्तर इतना ही है कि वैशेरिकों का सामान्य एक और नित्य है, किन्तु वैभाषिकों का निकाय-सभाग एक और नित्य नहीं है । न्याय-वैशेषिक जहाँ किसी का कारण नहीं बता सकते, वहाँ अदृष्ट की कल्पना करते है। सर्ग के श्रादि में जो परमाणु में कर्म होता है, वह अह' के कारण होता है । अग्नि का ऊर्ध्व-ज्वलन, वायु का निर्यग्-गमन, सूनी का अयस्कान्त के अभिमुख होना, यह सर्व अदृष्ट- विशेष के अधीन है [वैशेषिकसूत्र, ५।१।१५५।२।१३ ]। देह से मन का उत्क्रमण ( अयसपण ), देहान्तर में मन का प्रवेश ( ३६सर्पण), अशित-पात का संयोग ( उपचय ), इन्द्रिय और प्राण का देह से संयोग अदृधकारित है [ वशीकसूत्र, पारा१७ ] । इस सूत्र पर चन्द्रकान्तकृत भाष्य कहता है कि एक दूगरा भी अष्ट है, जिससे पुरुष का बीवन, उत्पत्ति और मरण होता है। शरीरादि का इस प्रकार का निर्माण हो है कि उस अवस्था में ऐसा होता है। यह अदृष्ट इसलिए, कहलाता है कि कारण दृष्ट नहीं है (न तत्र दृष्ट कारणमस्तीति), वस्तु-शक्ति ही इस प्रकार की है ( वस्तुशक्ति- रेवैतादृशी )। यह पूर्वकृत फर्म का फल है। यह अदृष्ट उसका है, जिसका इस गमन से हित या अहित होता है। न्यायसूत्र [ ३।२।६८] के अनुसार भी अट कार्म-फल है। इस कर्म-फल का योग, अर्थात् अहः-जन्य सुख-दुःख का मानस प्रत्यक्ष ही दर्शन है । दर्शनार्थ शरीर की सृष्टि होती है । जब हम किसी का कारण नहीं जानते हैं, तो हम उसे स्वाभाविक कहते हैं [न्याय- मंजरी में जयन्त ] । इसी प्रकार सास्तिवादी इसे 'धर्मता' कहते हैं, अर्थात् वस्तुत्रों का ऐसा ही धर्म है, स्वभाव है, शक्ति है । वे कहते हैं कि धर्मों की शक्ति अचिन्त्य है। यह नियत भी है। ४५