पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४४७

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पंचदश अध्याय १५. १. संप्रयुङ-संप्रयुक्तभाव से उपकारक धर्म । २०. विप्रयुक-विप्रयुक्तभाव से उपकारक धर्म । २२. अस्ति'-प्रत्युत्पन्न लक्षणवश अस्तिभाव से तादृश धर्म का उपष्टम्भन करता है। २१. नास्ति यह समनन्तर निरुद्ध अरूप धर्म है, जो अनन्तर उत्पद्यमान अरूप धर्मों को प्रवृत्ति का अवकाश देता है । २३. बिग- यह विगतभाव से उपकारक है । समनन्तर विगत चित्त-चैतसिक प्रत्युत्पन्न चित्त-चैतसिकों का विगत-प्रत्यय है। १५. प्रविगत-अस्ति प्रत्यय धर्म ही अविगतभाव से उपकारक है। इन चौबीस प्रत्ययों को छः प्रकार से संग्रहीत करते हैं- १. नाम ( अरूपी धर्म ) का नाम से संबन्ध । २. नाम का नाम-रूप से संबन्ध । ३. नाम का रूप से संबन्ध । ४. रूप का नाम से संबन्ध । ६. प्रगति का नाम से संबन्ध । ६. नाम-रूप का नाम से संबन्ध । अन्तिम दो केवल अभिधम्मत्यसंगहो में है। १. अनन्तर-निरुद्ध चित्त-चैतसिक धर्म प्रत्युत्पन्न चित्त-चैतसिक धर्मों के अनन्तर', समनन्तर', नास्ति', विगत, प्रत्ययश प्रत्यय हैं। पूर्व चित्त-चैतसिक धर्म पश्चिम चित्त-चैतमिक के प्रासेवनयश प्रत्यय हैं । सहजातधम संप्रयुक्तवश अन्योन्य-प्रत्यय हैं। 1 २. तीन अकुशल-हेर और तीन कुशल-हेतु में से कोई सहजात चित्त-चैतसिक और रूप के प्रत्यय होते हैं । इसी प्रकार सात ध्यान के अंग, बारह मार्गाङ्ग नाम-रूप के प्रत्यय होते हैं। महजात चेतना सहजात नामरूप का प्रत्यय होती है । नागक्षणिका चेतना कर्मवश कम से अभिनिवृत नाम-रूप का प्रत्यय होती है। विपाक-स्कन्ध विपाकवश सहजात रूप के अन्योन्य-प्रत्यय हैं। ३. पूर्वजात काय का पश्चाजात चित्त-चैतसिक धर्म पश्चाज्जत-प्रत्यय है। ४. पूर्वजात यश रूप नाम का प्रत्यय होता है। यथा-चतुवस्तु चक्षुर्विज्ञान-धातु का। ५. श्रालंबन और उपनिश्रय यश प्रशति-नामरूप नाम के प्रत्यय होते हैं। ६. अधिपति', सहबात', अन्योन्य', निश्रयः, आहार', इन्द्रिय', विप्रयुक्छ', अस्ति', अवगत', वश नाम-रूप नाम के प्रत्यय होते हैं। 1. कारण हेतु कोई धर्म अपना कारण-हेतु नहीं है। सब धर्म स्वत: से अन्य सब संस्कृत धर्मों के कारण हेतु है, क्योंकि उत्पत्तिमान् धर्मों के उत्पाद के प्रति प्रत्येक धर्म का अविनभाव से अवस्थान होता है । यह नहीं है कि उन सबका कारकमाव है। इस लक्ष्य से