पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४५

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का मल तम और स्वप्न का मल श्वास-प्रश्वास है। श्वास-प्रश्वास का अभिप्राय प्रायोत्पादादि तथा सत् असत् श्रादि विकल्प से है । बामत् का मल है संज्ञा अर्थात् देह-बोध । तांत्रिक योगियों का कहना है कि दैदिक योग से मलों की पूर्णतया निवृत्ति नहीं होती। किन्तु तांत्रिक क्रिया के प्रभाव से मल रह ही नहीं सकता । इस मत । वस्तुमात्र ही शन्य अर्थात् निःस्वभाव है। अतीत नहीं है और अनागत भी नहीं है, यह जान कर ध्यान करने से मनोमाव शून्यात्मक होता है । यह अत्यन्त गंभीर है, और देश कालादि से अपरिच्छिन्न है। इसके श्राधार पर जिस ज्ञान की प्रतिष्ठा है, उसी का नाम शून्यता-विमोक्ष है। इसके प्रभाव से मोहनाशक निर्विकार आनन्द की अभिव्यक्ति होती है। विश्व-करुणा से युक्त ज्ञान शुद्ध होता है। इसी का नाम सहज-काय है और इसी का नामान्तर विशुद्ध-काय भी है। ऊपर चार वज्रयोगों का जो संक्षिप्त विवरण दिया गया है, वह गुह्यसमाज और विमल- प्रभादि ग्रन्थों के आधार पर है। चैतन्य को प्रावरण से मुक्त करना ही योग का उद्देश्य है । एक एक वनयोगरूप चैतन्य से एक एक श्रावरण का उन्मीलन होता है। इससे समग्र विश्व- दर्शन का एक एक अंग खुल जाता है। इसका पारिभाषिक नाम अभिसंबोधि है । चार योगों से चार प्रकार की अभिसंबोधि उदित होती है, और पूर्णता की प्राप्ति के अन्तराय दूर हो जाते हैं। इस संबोधि का अालोचन दो तरह से किया जा सकता है-१. उत्पत्ति-क्रम तथा २, उत्पन्न-क्रम । वैदिक धारा की साधना में भी इन दोनों का परिचय मिलता है, किन्तु दोनों के प्रकार भिन्न हैं । सृष्टि-क्रम और संहार-झम अथवा अवरोह-क्रम और प्रारोह-क्रम का अवलंबन किये बिना सम्यक् रूपेण विश्वदर्शन नहीं किया जा सकता । श्रोचक्र लेखन की प्रणाली में केन्द्र से परिधि की तरफ या परिधि से केन्द्र की तरफ जैसे गति हो सकती है, अथ च दोनों में तख-दृष्टि तथा कार्य-दृष्टि से भेद है, ठीक उसी प्रकार उत्पत्ति-क्रम से अपन्न-क्रम का भी भेद है। उत्पत्ति-क्रम में चार संबोधियों को इस क्रम से समझना चाहिये । सबसे पहले है. एक- क्षण-अभिसंबोधि । यह स्वाभाविक या सहजकाय से संश्लिष्ट है | जन्मोन्मुख पालयविज्ञान जिस समय मातगर्भ में माता और पिता के समरसीभूत बिन्दु-द्वय के साथ एकत्व-लाम करता है, वह एक महाक्षण है। इस क्षण में जो सुख-संवित्ति होती है, उसका नाम एकक्षण-संबोधि है। उस समय गर्भस्य काया रोहि तमत्स्य के सदृश एकाकार रहती है। उसमें अंग-प्रत्यंग का विभाग नहीं रहता। इसके बाद पंचाकार-संबोधि होती है। पहले की काया सहज-काय से संश्लिष्ट थी, किन्तु यह काया धर्म-काय से संश्लिष्ट है । मातृ-गर्भ में जब रूपादि वासनात्मक पांच संवित्तियां होती है तब वह श्राकारकूर्मवत् पंचस्फोटक से विशिष्ट होती हैं। यह पंचाकार महासंबोधि की अवस्था है।