पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४५२

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३६. बौद्ध धर्म दर्शन अभिन्न श्राश्रय, क्षण एक चक्षुर्विज्ञान तथा विज्ञान-संप्रयुक्त वेदना और अन्य चैत्तों का श्राश्य है । जो संप्रयुक्तक-हेतु है, वह सहभ हेतु भी है। इन दो हेतुश्रों में क्या भेद है। धर्म सहभू-तु कहलाते हैं, क्योंकि वे अन्योन्य-फल है। यथा--सहसार्थिकों का मार्ग-प्रयाण परस्पर बल होता है, इसी प्रकार चित्त चेत्त का फल है, चैत्त चित्त का फल है। धर्म संप्रयुक्तक-हेतु कहलाते है, क्योंकि उनकी सम-प्रवृत्ति होती है; अर्थात् उनमें पूर्वनिर्दिष्ट पाँच समता-श्राश्रय, श्रालेबन, श्राकार, काल, द्रव्य-समता होती है । सहसार्थिकों की यात्रा अन्योन्य बल से होती है, पुनः उनकी सम-अन्नपानादिपरिभोग-क्रिया होती है। इसी प्रकार चित्त और चैत्त के अभिः श्राकारादि होते हैं। यदि पाँच समतायों में से किसी एक का भी श्रभाव हो, तो उनकी समप्रवृत्ति नहीं होती और वह संप्रयुक्त नहीं होते। ५. सर्वग-हे यारह अनुशय 'सर्वत्रग' कहे गए हैं, क्योंकि ये अपने धातु को साकल्यतः प्रालंबन बनाते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि सर्वत्रग युगपत् सकल स्वधातु को श्रालंबन बनाते हैं, किन्तु पंच-प्रकार ( निकाय ) का धातु इनका बालंबन होता है । ये ग्यारह अनुशय इस प्रकार हैं:-दुःखदर्शनप्रहेय पांच दृष्टियां, समुदयदर्शन-प्रहेय मिथ्या' दृष्टि, दुःख-समुदयप्रदेय अविद्या-द्वय । पूर्व सर्वत्रग स्वभूमिक पश्चिम लिष्ट धर्मों के सर्वत्रग-हेतु हैं । सर्वग क्लिष्ट धर्म के ही सामान्य कारण है। ये निकायान्तरीय लिष्ट धर्मों के भी हेतु है। इनके प्रभाव से अन्य निकायों में उत्पन्न केश सपरिवार उत्पन्न होते हैं। श्रतः सभाग-हेतु से पृथक् इनकी व्यवस्था होती है। सर्वत्रग सर्व-फ्रेश निकार्यों को प्राप्त होते हैं, सर्वभाक् होते हैं, सबको. पालन बनाते हैं। यह हेतु सभाग-हेतु से अधिक व्यापक है, क्योंकि यह स्वनिकाय में सीमित नहीं है। १. विपाक हेतु-अकुशल-धर्म और कुशलसासव-धर्म विपाक-हेतु है ये केवल विपाक हेतु है, क्योंकि इनकी विपक्ति की प्रकृति है। श्रन्याकृत धर्मों में स्वशक्ति का अभाव होता है। वे दुर्बल है, अतः वे विपाक-हेतु नहीं है । अनासब धर्मों में सहकारि-कारण नहीं होता । वह तृष्णा से अभिष्यन्दित नहीं है, अतः वह विपाक-हेतु नहीं है, यथा-सारबीब बल से अमिष्यन्दित न होने पर अंकुर की अभिनति नहीं करते । पुनः अनानव धर्म किसी धातु में प्रतिसंयुक्त नहीं है। जो धर्म अन्याकृत और अनासव नहीं है, वे उभय प्रकार से अर्थात् स्ववल अर्थात् तृष्णाभिध्यन्द से अन्वित होते हैं, और विपाक को निर्वत करते हैं, यथा-अभिष्यन्दित सार-बीज। 'विपाक' का अर्थ है 'विसदृश पाक | केवल विपाक-हेतु एक विसदृश पाक ही प्रदान करता है । सहभ, संप्रयुक्तक, सभाग, सर्वत्रग हेतु के पाक सदृश ही होते हैं। कारण-हेतु का फल सहा या विसरा होता है। केवल विक-हेतु निस्य विसरा-फल देता है, क्योकि विपाक- इंतु कभी अव्याहत नहीं होता, और उस 61 फज सदा अन्याकृत होता है। 1