पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४५३

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३९५ वस्तुतः फर्म दो प्रकार के होते हैं--एक जिनका फल विचित्र है, दूसरे दिनका फल अविचित्र है, बाा बीजवत् । एकाध्विक कर्म का विपाक त्रैयधिक होता है, किन्तु विपर्यय नहीं होता; क्योंकि फल हेतु से प्रति न्यून नहीं होता। एकक्षणिक-कर्म का विपाक बहुक्षणिक हो सकता है, किन्तु उसी कारण से विपर्यय ठीक नहीं है। कर्म के साथ विपाक विपच्यमान नहीं होता, क्योंकि जिस क्षण में कर्म का अनुष्ठान होता है, उस क्षण में विपाक-फल का श्रास्वादन नहीं होता। कर्म के अनन्तर भी विपाक नहीं होता, क्योंकि समनन्तर क्षण समनन्तर-प्रत्यय से श्राकृष्ट होता है। वस्तुतः विपाक-हेतु अपने फल के लिए, प्रवाहापेक्ष है । सर्वत्रग-हेतु और सभाग-हेतु दो अध्व के होते हैं। शेष तीन हेतु व्यध्वक है । अतीत प्रत्युत्पन्न धर्म सर्वत्रग सभाग-हेतु हो सकते हैं। अतीत, प्रत्युत्पन्न और अनागत धर्म संप्रयुक्तक, महभू और विपाक-हेतु हो सकते हैं। सर्वावग संस्कृत-धर्म कारण हेतु हैं । असंस्कृत-धर्म अध्य विनिर्मुक्त है। वह कौन फल हैं, जिनके ये पूर्वोक्त हेतु हैं ? किन फलों के कारण ये हेतु अपधारित होते हैं। संस्कृत और विसंयोग फल है । विसंयोग-फल निर्वाण है। यह एक संस्कृत है । यह अहेतुक है । इसका फल नहीं है, किन्तु यह कारण-हेतु है, और फल है । सर्वास्तिवादी कहते हैं कि केवल संस्कृत के हतु-फल होते हैं, असंस्कृत के हेतु और फल नहीं होते; क्योंकि पविध हेतु और पंचविध फल असंस्कृत के लिए असंभव है। यदि ऐसा है तो विसंयोग फल कैसे है । यह किसका फल है । यह मार्ग का फल है, क्योंकि इसकी प्राप्ति मार्ग-बल से होती है। दूसरे शब्दों में योगी मार्ग से विसंयोग की प्राप्ति का प्रतिलभ करते हैं, अतः विसंयोग का प्रतिलाभ, उसकी प्राप्ति मार्ग का फल है। विसंयोग स्वयं फल नहीं है, क्योंकि मार्ग का सामर्थ्य विसंयोग की प्राति के प्रति है। विसंयोग के प्रति उसका असामर्थ्य है । हेतु के आधार पर फल-निर्वृति की व्यवस्था-अब हम बताते है कि किस प्रकार के हेतु से किस प्रकार का फल निवृत होता है। विपाक विपाक-हेतु का फल है। विपाक कुशल या अकुशल सासव धर्मों से उत्पादित होता है। हंतु कुशल या अकुशल है, किन्तु फल सदा अन्याकृत है, क्योंकि यह फल स्वहेतु से भिन्न है, और 'पाक है। इसलिए इसे 'विपाक कहते हैं। भाजन-लोक सत्व-समुदाय के कुशल-अकुशल कर्मों से बनित है । यह अव्याकृत है, किन्तु यह विपाक नहीं है, क्योंकि विषाक एक रु :-संख्यात धर्म है। अत: यह कारणहेतुभूत कर्मों का अधिपति-पता है। कारण-हेतु से अधिपति-फल निवृत होता है। किन्तु यह कहा जायगा कि अनावरण-भावमात्रावस्थान ही कारण-हेतु है। इसको 'अधिपति' कैसे मान सकते हैं। कारण हेतु या तो 'उपेक्षका है, उस अवस्था में इसे अधि- पति अवधारण करते हैं, क्योंकि इसका अनावरणभाव है । अथवा यह कारक है, और