पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४५४

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बौद्ध-धर्म दर्शन इसे अधिपति मानते हैं, क्योंकि इसका प्रधानभाव, जनकभाव और अंगीभाव है, यथा--दश आयतन ( रूपादि और चक्षुरादि ) पंच विज्ञानकाय की उत्पत्ति में अधिपति है, और सत्वों के समुदित कर्म का भाजन-लोक के प्रति अंगीभाव है। श्रोत्र का चक्षुर्विज्ञान की उत्पत्ति में पार- पर्येण श्राधिपत्य है, क्योंकि सुनकर द्रष्टुकामता की उत्पत्ति होती है, "एवमादि । बिष्पन्न सभाग और सर्वत्रग-हेतु का फल है, क्योंकि इन दो हेतुओं का फल स्वहेतु के सहश है । अतः इन दो हेतुश्रों से निष्यन्द-फल निवृत होता है । पुरुषकार ( पौरुष-फल ) सहभू-हेतु और संप्रयुक्तक-हेतु का फल है । पुरुषकार पुरुष- भाव से व्यतिरिक नहीं है, क्योंकि कर्म कर्मवान् से अन्य नहीं है । जिस धर्म का जो कारित्र है, वह उसका पुरुषकार कहलाता है, क्योंकि वह पुरुषकार के सदृश है । एक मत के अनुसार विपाक-हेतु को छोड़कर अन्य हेतुत्रों का भी यही फल होता है । वस्तुतः यह फल सहोत्पन्न है, या समनन्तरोत्पन्न है; किन्तु विपाक-फल ऐसा नहीं है । अन्य प्राचार्यों के अनुसार विपाक-हेतु का एक विप्रकृष्ट पुरुषकार-फल भी होता है । अब भिन्न फलों के लक्षण का विचार करते हैं। विपाक एक अव्याकृत धर्म है। यह सत्वाख्य है। यह उत्तरकाल में व्याकृत से उत्पन्न होता है । अकुशल और कुशल सासव कर्म से उत्तरकाल में युगपत् या अनन्तर नहीं । जो होता है, वह विपाक-फल है । विपाक-फल स्वकीय है, जिस कर्म की निष्पत्ति मैंने की है, उसके विपाक-फल का भोग दूसरा नहीं करता ! हेतुसदृश-फल निष्यन्द कहलाता है । सभाग-हेतु और सर्वत्रग-हेतु यह हेतु-द्वय निष्यन्द-फल प्रदान करते हैं । सर्वत्रग-हेतु का फल १. भूमितः सदा हेतु 'सदृश है, २. क्लिष्टतया हेतु-सदृश है, किन्तु प्रकारतः उसका हेतु से साईश्य नहीं है। प्रकार ( निकाय ) से अभिप्राय प्रहाण-प्रकार से है :-दुःखादिसत्यदर्शन प्रहातव्य । किन्तु जिसका प्रकारता भी सादृश्य होता है, वह सर्वत्रग-हेतु सभाग-हेतु भी अभ्युपगत होता है । अतएव चार कोटि १. असर्वत्रग सभाग-हेतु-यथा रागादिक स्वनैकायिक क्लेश का सभाग-हेतु है। सर्वत्रग-रेतु नहीं है। २. अन्य नैकायिक सर्वत्रग-हेतु-सर्वत्रग क्लेश अन्य नैकायिक केश का सर्वत्रग-हेतु है, सभाग-हेत नहीं है। ३. एक नैकायिक सर्वत्रग हेतु-सर्वत्रग बैश एक नैकायिक संश का सभाग-हेतु और सर्वत्रग-हेतु है। ४. इन प्राकारों को वर्जितकर अन्य धर्म न सभाग-हेतु है और न सर्वत्रग-हेतु । विसंयोग' या विसंयोग-फल क्षय (निरोध ) है, जो प्रज्ञा से प्रतिलब्ध होता है। अतः विसंयोग प्रतिसंख्या-निरोध है। जिस धर्म के बल से जो उत्पन्न होता है, वह धर्म उसका पुरुषकार-फल है। यह धर्म संस्कृत है। दृष्टान्त ---उपरिभूमिक समाधि अधर-मूमिक तत्प्रयोग चित्त का पुरुपकार-फल है ।

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