पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४५७

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पंचदश अध्यान भागवत् सस्तों को विनीत करने में प्रयुक्त नहीं है, वहीं अन्य भगवन् प्रयुक्त नहीं होते । कुछ निकायों के अनुसार बुद्ध युगपत् होते हैं, किन्तु एकत्र नहीं होते, भिन्न लोकधातुओं में होते हैं। लोक-धात अनन्त हैं । सर्व लोक-धातु में विचरना कठिन है। अतः अपना कार्य करने के लिए भिन्न लोक-धातुओं में कई तथागत एक साथ हो सकते हैं। यहाँ प्रश्न यह है कि संवर्त और विवत के बीच के काल में क्या होता है। सवर्तनी का यह प्रभाव होता है कि विनष्ट भाजन का एक भी परमाणु अवशिष्ट नहीं रहता। किन्तु वैशेषिक कहते हैं कि परमाणु नित्य है, और इसलिए जब लोक-धातु का नाश होता है, तब यह अवशिष्ट रहते हैं। वास्तव में इनका कहना है कि यदि अन्यथा होता तो स्थूल शरीर की उत्पत्ति अहेतुक होती। वसुबन्धु का उत्तर है कि अपूर्व लोक-धातु का वीज वायु है। यह वायु प्राधिपत्य विशेष से युक्त होता है। इन विशेषों का प्रभव सत्वों के कर्म से होता है, और इस वायु का निमित्त अविनष्ट रूपावचर वायु है । वैशेषिक कहते हैं कि बीज केवल निमित्त- कारण है, समवायिकारण नहीं है। उनके अनुसार अंकुर के जनन में इसके अन्यत्र कि यह अंकुर के परमाणुओं का उपसर्पण करता है, बीज का कुछ भी सामर्थ्य नहीं है। इसके प्रतिकूल बौद्ध मानते है कि बीज में ऐसी शक्ति है, जो अंकुर-काण्डादि के स्थूल भावों को उत्पन्न करती है। अनुशय कर्म अनुशय क्श उपचित होते हैं। अनुशयों के बिना कर्म पुनर्भव के अभिनिवर्तन में समर्थ नहीं होते। भव का मूल अर्थात् पुनर्भव या कर्मभव का मूल अनुशय है । अनुशय श्रणु हैं । यह अनुसत होते हैं । क्लेशों के समुदाचार के पूर्व इनका प्रचार दुविश्य है । अतः यह अणु है। यह आलंबनतः और संप्रयोगतः अनुशयन करते हैं, अर्थात् प्रतिष्ठा-लाम करते है, या पुष्टि-लाभ करते हैं। इनका निरन्तर अनुबन्ध होता है, क्योंकि बिना प्रयोग के और प्रतिनिवारित होने पर भी इनका पुनः संमुखीभाव होता है । अनुशय हरण करते हैं, प्रता इन्हें श्रोध कहते हैं। अनुशय अाश्लिष्ट करते हैं, अतः इन्हें योग कहते हैं। अनुशय उप- ग्रहण करते हैं, अतः इन्हे उपादान कहते हैं। अनुशयों से चित्त-सन्तति विषयों में क्षरित होती है, अता अनुशय प्रासब हैं । ये बधन हैं, संयोजन हैं । अनुशय छः हैं:-राग,प्रतिष, मान, अविद्या, दृष्टि और विमति । यह छ: राग-भेद से सात होते हैं। राग दो प्रकार के हैं। काम-राग और भव-राग । पांच रूपी इन्द्रियों के रूपशब्दादि बालबनों में राग काम-राग' है। रूपधातु और प्रारूप्यधातु के प्रति जो राग होता है, वह भव-राग कहलाता है, क्योंकि इनकी अन्तर्मुखी वृत्ति है। और इस संज्ञा की व्यावृत्ति के लिए भी कि यह दो धातु मोक्ष है, इसे भव-राग कहते हैं । इन अनुशयों में से कुछ दर्शन-हेय है और कुछ भावना-हेय । शान्ति, मान तथा दर्शन-रधि 'क्षान्ति का अर्थ क्षमण, रुचि है। यह क्षान्ति' शान्ति-पारमिता से भिक है। यह सत्य-दर्शन-मार्ग में संग्रहीत अनासव शान्तियों से संबध रखती है, किन्तु यह साखव, लौकिक है। Y