पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४५८

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गैर-धर्म-पर्यन 'हान्तिः संशा इसलिए है, क्योंकि इस अवस्था में अधिमात्र सत्य रचते हैं। क्षान्तियों का वर्णन धर्मस्मृत्युपस्यान से ही होता है, अन्य स्मृत्युपस्थानों से नहीं होता । अधिमात्रदान्ति का श्लेष अप्रधों से होता है, अतः इसका विषय केवल कामाप्त-दुःख है । लौकिक अग्रधर्मों से एक अना• सव धर्मक्षान्ति की उत्पत्ति होती है । यथार्थ में एक धर्म-ज्ञान-क्षान्ति लौकिकामधर्मों के अनन्तर होती है । इसका प्रालंबन काम-दुःख है । अत: उसे 'दुःखे धर्मशानशान्तिकहते हैं । यह वह क्षान्ति है, को धम-शान का उत्पाद करती है, जिसका उद्देश्य और फल धर्म-जान है, यह दान्ति नियाम में अवक्रमण है, क्योंकि यह सम्यक्त्व अर्थात् निर्वाण के नियम में अवक्रमण है। 'नियामा का अर्थ एकान्तीभाव है। इसका लाभ 'श्रवक्रमण' कहलाता है । इस प्राप्ति के एक बार उत्पन्न होने पर योगी आर्य-पुद्गल होता है । उत्पद्यमान अवस्था में यह क्षान्ति पृथग्जनल का ग्यावर्तन करती है। 'दुःखे धर्मशानक्षान्ति के अनन्तर ही एक धर्म-ज्ञान की उत्पत्ति होती है, बिसका श्रालंबन कामाप्त-दुःख है। उसे 'दुःखे धर्मशान' कहते हैं। यह ज्ञान अनासव है। यथा-कामघात के के लिए एक धर्म-शान-शान्ति और एक धर्म-शान की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार शेष दुःख के लिए एक अन्वय-ज्ञान्ति और एक अन्वय-ज्ञान की उत्पत्ति होती है । धर्म-ज्ञान नाम का व्यवहार इसलिए है कि प्रथमतः दुःखादि धर्मतत्त्व का शान योगी को होता है । श्रन्वय-शान का व्यवहार इसलिए है कि धर्म-ज्ञान इसका हेतु है (तदन्वय-तद्हेतुक) शान दश है। किन्तु संक्षेप में शान दो प्रकार का है-सानव और अनास्तव । सब ज्ञान जान के इन दो प्रकारों के अन्तर्गत हैं । इन दो शानों में से पहला 'संवृत' कहलाता है । सासव-शान 'लोक-संवृति-ज्ञान' कहलाता है, क्योंकि प्रायेण यह ज्ञान संवृति-सद्-वस्तु का श्रालेबन ग्रहण करता है। श्रनासव भान दो प्रकार का है-धर्म-ज्ञान और अन्वय- शान । इन दो शानों को और पूर्वोक्त ज्ञान को संगृहीत कर तीन ज्ञान होते हैं. लोक-संवृति- जान, धर्म-ज्ञान, और अन्वय-ज्ञान । इनमें सांवृत का गोचर सत्र धर्म है, अर्थात् सत्र संस्कृत एवं असंस्कृत धर्म संवृति-शान के विषय हैं। जो ज्ञान 'धर्म' कहलाता है, उसके विषय काम- धातु के दुःखादि हैं। धर्म-ज्ञान का गोचर कामधातु का दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध, दुःख-निरोध-गामिनी प्रतिपत्ति है। अन्वय-ज्ञान का गोचर ६ भूमियों का दुःखादि है, अर्थात् रूपधातु और श्ररूपधातु के दुःखादि अन्वय-ज्ञान के विषय है । यह दो शान सत्यभद से चतुर्विध है, अर्थात् दुःख ज्ञान, समुदय-शान, निरोध-ज्ञान, मार्ग-शान । यह दो शान को चतुर्विध है, क्षय-शान और अनुत्पाद-शान कहलाते हैं। जब योगी अपने से कहता है कि मैंने दुःख को भली प्रकार परिशात किया है, समुदय का प्रहाण किया है, निरोध का संमुखीभाव किया है, मार्ग की भावना की है, तब इससे जो शान, जो दर्शन, जो विद्या, नो बोधि, जो प्रशा, जो आलोक, बो विपश्यना उत्पन्न होती है, वह क्षय-शान कहलाता है । जब योगी अपने से कहता है कि मैंने दुःख को भली भांति परिज्ञात किया है, और अब फिर परिचय नहीं है, इत्यादि, तो जो जान उत्पन्न होता है, वह अनुत्पाद-शान कहलाता है ( मूलशास्त्र)। इन ज्ञानों के अतिरिक परचित्त-ज्ञान भी है। इस प्रकार दश जान ये है-लोक-संवृति-शान, धर्म-ज्ञान, अन्वय-ज्ञान, परचित्त-शान, दुःख-ज्ञान, समुदय-ज्ञान, निरोध-चान, मार्ग-शान,