पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६१

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घोडा अध्याय धमकोश की व्याख्या के अनुसार दान्तिक सौत्रान्तिक है, या सौत्रान्तिक-विशेष है [ व्याख्या पृ. ३८२, पंक्ति २१-दान्तिकाः सौत्रान्तिका-; पृ० ४०० पंक्ति १७-दान्तिकाः सौत्रान्तिक- विशेषाः ] । तिब्बती पंडितों के अनुसार दोनों एक हैं। इस वाद का नाम दान्तिक क्यों पड़ा, यह टीक तरह से नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग इनका संबन्ध कुमारलात के अन्ध 'दृष्टान्तपंक्ति से जोड़ते हैं। कुछ का कहना है कि दृष्टान्तों का प्रयोग करना इसकी विशेषता है, इस कारण इसका नाम 'दार्टान्तिक' पड़ा । प्रजुलुस्की का विचार है कि दृष्टान्त विनयसूत्र और अभिधर्म के विरुद्ध भी हो सकते हैं। विभाषा इनके संबन्ध में कहती है कि यह सत्य भी हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते । सौत्रान्तिक मतवाद का साहित्य नष्ट हो गया है। अत: इसके संबन्ध में हमारी जान- कारी बहुत थोड़ी है, तथापि जो सूचना अभिधर्मकोश तथा उसकी व्याख्या में मिलती है, उनके आधार पर हम सौत्रान्तिक मत का व्याख्यान पिछले अध्याय में वैभाविक से तुलना के प्रसंग में कर चुके हैं, अवशिष्ट मुख्य-मुख्य सिद्धान्तों को यहां देते हैं । विशानवाद स्वीकार करने के पूर्व वसुबन्धु का झुकाव सौत्रान्तिक मतवाद की ओर था । अतः यार अभिधर्मकोश वैभाषिक-मत का प्रतिपादन करता है, तथापि वह जहाँ सौत्रा- न्तिक-मत के विरुद्ध है, वहाँ वसुबन्धु सौत्रान्तिक दृष्टि से उनकी आलोचना करते हैं। वैभाषिको के समान सौत्रान्तिक भी स्वभाववादी है। इनकी गणना हीनयान में की जाती है, यद्यपि ये महायान के धर्मकाय को स्वीकार करते हैं, और एक प्रकार से महायान के श्रारंभक कहे जा सकते हैं। ये वैभाषिकी के सब धर्मों के अस्तित्व को नहीं स्वीकार करते । ये वैभाषिकों के तुल्य बाह्य जगत् के अस्तित्व को मानते हैं, किन्तु इनके अनुसार इसका ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा न होकर अनुमान द्वारा होता है। वैभाषिक से सौत्रास्तिक का भेद रूप-वैभाषिकों के अनुसार रूप द्विविध है, अर्थात् वर्ण-संस्थान भेद से दो प्रकार का है । किन्तु सौत्रान्तिक का कहना है कि संस्थान का ग्रहण चाक्षुष नहीं है; यह परिकल्म मानस है । संस्थान वर्ण-सनिवेश-विशेष हो है। संस्थान नाम का कोई द्रव्य नहीं है। यदि वर्ण का ग्रहण न हो तो संस्थान के ग्रहण का प्रभाव हो । उनका प्रश्न है कि एक द्रव्य उभयथा कैसे विद्यमान हो सकता है [ अभिधर्मकोश, १।१०; व्याख्या, पृ० २६, पाक्त १५ ] । वैभाषिकों के अनुसार बुद्धवचन वाक्-स्वभाव और नाम-स्वभाव दोनों है, किन्तु सौत्रा- न्तिकों के अनुसार वह वाग्-विज्ञास-स्वभावमात्र है [अभिधर्मकोश, ११२५; व्याख्या, पृ. ५२ पति १.] प्रसंस्कृत-सौत्रान्तिक तीन असंस्कृतों को प्राकाश, अप्रतिसंख्या-निरोध और प्रति- संख्या-निरोध को द्रव्य-सत नहीं मानते। उनका कथन है कि यह रूप-वेदनादि के समान द्रव्यान्तर, भावान्तर नहीं है। जिसे 'आकाश' कहते हैं, यह स्पष्टव्य का अभावमात्र, अर्थात् सप्रतिष द्रव्य का प्रभावमात्र है। विा को न पाकर ( अविन्दन्तः) अचानवश लोग कहते