पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६२

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बौद-धर्म-दर्शन है कि यह आकाश है। जिसे प्रतिसंख्या-निरोध या निर्वाण कहते हैं, वह प्रतिसंख्या (ज्ञा) के बल से अन्य अनुशय, अन्य जन्म का अनुत्पाद है; जब उत्पन्न अनुशय और उत्पन्न कम का निरोध होता है । निर्वाण वस्तु-सत् नहीं है, यह अभावमात्र है । सर्वास्तिवाद के अनुसार निर्वाण विसंयोग-फल है, यह अहेतुक है । इसका फल नहीं है, किन्तु यह कारण-हेतु है । सौत्रान्तिक आक्षेप करते हैं कि यदि असंस्कृत फल है, तो इसका एक हेतु होना चाहिये, जिस हेतु के लिए कह सकें कि इस हेतु का यह फल है। पुनः जन सर्वास्तिवादी इसे कारण हेतु मानते हैं, तो इसका फल होना चाहिये, जिस फल के लिए कह सकें कि इस फल का यह हेतु है। सर्वास्तिवादी उत्तर देता है कि केवल संस्कृत के हेतु-फल होते हैं, असंस्कृत के हेतु-फल नहीं होते; क्योंकि पविध हेतु और पंचविध फल असंस्कृत के लिए असंभव है । यह विवाद अतिविस्तृत है। संघभद्र ने न्यायानुसार में 'असंस्कृत' के प्रतिषेध का खण्डन किया है। इस विस्तृत व्याख्यान के लिए, यहां स्थान नहीं है । सर्वास्तिवादी अन्त में कहता है कि निर्वाण धम-स्वभाव-वश द्रव्य है। यह अवाच्य है। केवल आर्य इसका साक्षा- कार करते हैं। इसका प्रत्यात्म-संवेदन होता है। इसके सामान्य लक्षणों का यह कह कर निर्देशमात्र हो सकता है कि यह दूसरी से भिन्न एक कुशल, नित्य द्रव्य है; जिसकी संज्ञा निर्वाण है। अप्रतिसंख्या-निरोध भी अभावमात्र है, वस्तु-सत् नहीं है। जन प्रतिसंख्या-बल के बिना प्रत्यय-वैकल्य-मात्र सं धर्मा का अनुवाद होता है, तब इस अप्रतिसंख्या-निरोध कहते हैं। चित्र-विप्रयुक-धर्म-सौत्रान्तिक चित्त-विप्रयुक्त धर्मों का अस्तित्व नहीं मानते । उनके अनुसार यह प्रजासमात्र हैं, वस्तु-सत् नहीं है। अभिधर्मकोश के द्वितीय कोशस्थान में सौत्रान्तिक का व्याख्यान विस्तारपूर्वक दिया गया है। जिसमें वह इन धर्मों के द्रव्यतः अस्तित्व का प्रतिषेध करते हैं। ये चित्त-विप्रयुक्त-धर्म संस्कार-स्कन्ध में संगृहात हैं। प्राप्ति, अप्राप्ति, सभागता, श्रासंजिक, दो समापत्ति, जीवितेन्द्रिय, लक्षण नामकायादि और एवंजातीयक धर्म चित्त- विप्रयुक्त है। यहां उदाहरणमात्र के लिए, हम दो तीन चित्त-विप्रयुक्त संस्कारों के संबंध में सौत्रान्तिक विचार उद्धृत करते हैं । प्राति नामक धर्म के अस्तित्व को वे नहीं मानते। वे कहते है कि प्राप्ति को प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, यथा--रूप-शब्दादि की होती है, यथा-राग-द्वंपादि की होती है। उसके कृत्य से प्राप्ति का अस्तित्व अनुमित नहीं होता, यथा-चक्षुरादि इन्द्रिय अनुमान से ग्राम है। समागता (निकाय-सभाग) को सौत्रान्तिक द्रव्य-सा नहीं मानते। सर्वास्तिवाद के अनुसार यह एक दूव्य है, एक धर्म है, जिसके योग से सत्य तथा सत्व-रख्यात धर्मों का परस्पर सादृश्य (- सभाग) होता है। शास्त्र में इस द्रव्य को निकाय-सभाग संक्षा है। यह सत्वों को