पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६५

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सौत्रान्तिक-किन्तु यदि उनका अस्तित्व है, तो उनका स्वभाव अतीत और अनागत का कैसे बताते हैं ? वस्तुतः मर्वास्तिवादी द्वारा उद्धृत वचन में भगवान् का अभिप्राय हेतु- फलापवाद-दृष्टि का प्रतिवेध करना है। 'अतीत था' के अर्थ में वह 'श्रतीत है। कहते हैं। 'अनागत होगा' के अर्थ में वह 'अनागत है। कहते हैं । 'अस्ति' शब्द निपात है । यथा लोक में कहते हैं कि-'दीप का प्राक् अभाव है। (अस्ति), 'दीप का पश्चात् अभाव है, यह प्रदीप निरुद्ध है (अस्ति), किन्तु यह प्रदीप मुझसे निरोधित नहीं है। इसी अर्थ में सूत्र में उक्त है :--'श्रतीत है, अनागत है। अन्यथा यदि उसी लक्षण के साथ विद्यमान हो, तो अतीत-अनागत की सिद्धि न हो। सर्वास्तिवादी-हम देखते हैं कि भगवान् लगुइ-शिखीपक-परिचाजको को उद्दिष्ट कर ऐसा कहते हैं कि-"अतीत कम निरुद्ध, विनष्ट, अस्तंगत कर्म है । प्रस्तावित निर्देश के अनुसार इसका अर्थ होगा कि 'यह कर्म था। किन्तु क्या परिबाजको को उस अतीत कर्म का भूतपूर्वत्व इष्ट नहीं है ? सौत्रान्तिक--यदि भगवान् कहते हैं कि अतीत कर्म है, तो उनकी अभिसन्धि फलदान सामर्थ्य में जिले भूतपूर्व कर्म ने कारक की सन्तति में अाहित की है। अन्यथा यदि अतीत- कर्म स्वभाव से विद्यमान है (स्पेन मावेन विद्यमान ), तो विद्यमान अतीत की सिद्धि कैसे होगी! पुनः आगम की उक्ति स्पष्ट है । भगवान् ने परमार्थ-शून्यता-सूत्र में कहा है कि- "हे भिक्षुश्रो ! चक्षु उत्पद्यमान होकर कहीं से श्राता नहीं है; निरुध्यमान होकर कहीं संचित नहीं होता। इस प्रकार हे भिन्नुभो ! चक्षु का अभूवा-भाव होता है, और भूल्या-अभाव होता है। यदि अनागत चतु, होता, तो भगवान् नहीं कहते कि चक्षु का अभूत्वा-भाव है। सर्वास्तिवादी कदाचित् कहेगा-'अभूत्वा भाव' का अर्थ है--वर्तमान अर्थ में न होकर होता है ( वर्तमानेऽध्वनि अभूत्वा); अर्थात् वर्तमान-भाव में न होकर होता है ( वर्त- मानभावे न अभूत्वा ।। यह अयुक्त है, क्योंकि अव चक्षुसंज्ञक भाव में अर्थान्तर नहीं है। क्या इसका यह अर्थ श्राप करेंगे-'स्वक्षणतः न होकर' । इससे यह सिद्ध होता है कि अनागत चक्षु नहीं है। अतीत और अनागत है, क्योंकि विज्ञान की उत्पत्ति दो वस्तुओं के कारण होती है। मनोविज्ञान की उत्पत्ति मन-इन्द्रिय तथा अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न धर्मों के कारण होती है । इस युक्ति के संबन्ध में क्या यह समझना चाहिये कि ये धर्म मन-इन्द्रिय की तरह मनोविज्ञान के जनक-प्रत्यय हैं ? अथवा ये श्रालंबनमात्र हैं ? यह व्यक्त है कि अनागत धर्म, जो सहसों वर्ष में होंगे, या जो कभी न होंगे, प्रत्युत्पन्न मनोविज्ञान के जनक-प्रत्यय नहीं है। यह व्यक है कि निर्वाण जो सर्वोत्पत्ति के विरुद्ध है, जनक-प्रत्यय नहीं हो सकता। अब यह शेष रह जाता है कि धर्म विज्ञान के प्रालंबन-प्रत्यय हो। हमको यह इष्ट है कि अनागत और अतीत धर्म बालंबन-प्रत्यय है । सर्वास्तिवादी का प्रश्न है कि यदि अतीत और अनागत धर्म का अस्तित्व नहीं है, तो वह विज्ञान का श्रालंबन कैसे हैं?