पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६६

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बौख-धर्म-दर्शन सौत्रान्तिक-उनका अस्तित्व उसी प्रकार है, जिस प्रकार वे श्रालंबन के रूप में ग्रहीत होते हैं। वे अतीत और अनागत के चिह्न के साथ भूतपूर्व-भविष्यत् की तरह श्रालंबन के रूप में गृहीत होते हैं। वास्तव में कोई अतीत रूप या वेदना का स्मरण कर यह नहीं देखता कि-'यह है, किन्तु वह स्मरण करता है कि 'यह था। बो पुरुष अनागत का प्राग प्रदर्शन करता है, वह सत् अनागत को नहीं देखता। किन्तु एक दूसरी भविष्यत् वस्तु अनागत को देखता है। स्मृति यथादृष्ट रूप का ग्रहण करती है, यथानुभूत वेदना का ग्रहण करती है; अर्थात् वर्तमान रूप और वेदना के समान ग्रहण करती है। यदि धर्म जिसका पुद्गल को स्मरण है, ऐसा है कि उसका ग्रहण पुद्गल स्मृति से करता है, तो यह प्रत्यक्ष ही वर्तमान है । यदि यह ऐसा नहीं है, यदि इसका ग्रहण स्मृति से नहीं है, तो असत् भी स्मृति-विज्ञान का अवश्य लालवन होता है। क्या आप यह कहेंगे कि अतीत और अनागत रूप का अस्तित्व बिना वर्तमान हुए है, क्योंकि अतीत और अनागत रूप विप्रकीर्ण परमाणु से अन्य वस्तु नहीं है। किन्तु हम कहेंगे कि जब विज्ञान स्मृति या प्राग दर्शन से अतीत और अनागत रूप को श्रालंबन के रूप में ग्रहण करता है, तब यह विप्रकीर्णावस्था में उसको अालबनवत् ग्रहण नहीं करता; किन्तु इसके विपर्यय संचितावस्था में करता है। यदि अतीत और अनागत रूप वर्तमान रूप ही है, किन्तु परमाणुशा विभक्त है, तो परमाणु नित्य होंगे। न कोई उत्पाद है, और न कोई निरोध । परमाणुसंचय और विभागमात्र है। ऐसे वाद के ग्रहण से आजीविक-वाद का परिग्रह होता है, और बुद्ध का यह सूत्र अपास्त होता है कि चक्षु उत्पद्यमान होकर कहीं से श्राता नहीं। वेदनादि अमृत धर्मों में यह युक्ति नहीं लगती । परमाणु संचित न होने से इनका अतीत और अनागत अवस्था पुनः विप्रकीर्णत्व कैसे है ? सर्वास्तिवादी कर्म-फल से भी तक श्राहृत करते है। सौत्रान्तिक यह नहीं स्वीकार करते कि अतीत कर्म से फल की प्रत्यक्ष उत्पत्ति होती है। उनके अनुसार कर्म-पूर्वक चित्त- संतान-विशेष से फल की उत्पत्ति होती है। किन्तु जो यादी अतीत और अनागत को द्रव्यतः मानते हैं, उनको फल की नित्यता इष्ट होनी चाहिये । अतएव उन सर्वास्तिवादियों का सर्वास्तिवाद, जो अतीत और अनागत की द्रव्य-सत्ता को मानते हैं, साधु नहीं है। इस अर्थ में सर्वास्तिवाद को नहीं लेना चाहिये । साधु सर्वास्तिवाद वह है, जिसकी सर्वास्तित्व की प्रतिज्ञा में सर्व का वही अर्थ है, जो आगम में उक्त है । सूत्र की यह प्रतिज्ञा कैसे है कि सर्व का अस्तित्व है ? "हे ब्राह्मण ! जर कोई कहता है कि 'सर्वमस्ति', तब उसका अभिप्राय बारह श्रायतनों से होता है । यह समानवाची है। अथवा सर्व जिसका अस्तित्व है, अध्य-त्रय है ।" और इनका अस्तित्व कैसे होता है, यह भी भी बताया है-"बो भूतपूर्व है, वह अतीत है. "किन्तु यदि अतीत अनागत का अस्तित्व नहीं है, तो अतीत अनागत केश से अतीत अनागत वस्तु में कोई संयुक्त कैसे होता है। संतान में अतीत क्लेश-बात अनुशय के सद्भाववश अतीत क्रश से पुद्गल संयुक्त होता है। अतीत और अनागत वस्तु से संयोग तदाबन-क्लेश के अनुशय से सद्भाववश होता है।