पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४६८

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३८० बोर-धर्म-दर्शन का कालान्तर-भाव युक्त नहीं है। क्यों? क्योंकि उत्पत्ति हेतुतः होती है । हेतुवंश ही सब संस्कृत उत्पन्न होते हैं। यदि होकर ( भूत्वा ) उत्तर काल में पुन: भाव होता है, तो यह अवश्य हेतुक्श ही होगा | हेह के बिना अादि से ही अभाव होगा, और वह उसी हेतु से नहीं हो सकता, क्योंकि उसने उस हेतु का उपभोग कर लिया है। अन्य हेतु की उपलब्धि भी नहीं है, अत प्रतिक्षण पूर्व-हेतुक अन्य अवश्य होता है । इस प्रकार बिना प्रबन्ध के उत्पन्न का कालान्तर-भाव युक्त नहीं है । अथवा यदि कोई यह कहे कि हमको यह इष्ट नहीं है कि उत्पन्न का पुन: उत्पाद होता है, तो उसके लिए हेतु का होना आवश्यक है। उत्पन्न कालान्तर में पश्चात् निरुद्ध होता है, उत्पन्नमात्र ही निरुद्ध नहीं होता। तब किस कारण से पश्चात् निरोध होता है ? यदि यह कहा जाय कि उत्पाद-हेतु से यह निरुद्ध होता है, तो वह अयुक्त होगा; क्योंकि उत्पाद और निरोध का विरोध है। दो विरोधों का तुल्य हेतु उपलब्ध नहीं होता, यथा-छाया श्रातप, या शीत-उप्ण का। पुनः कालान्तर-निरोध का ही भागम से विरोध है । भगवत्-वचन "हे भिन्तुनो! संस्कार मायोपम है। यह श्रापायिक और तावत्कालिक है । यह क्षणमात्र भी श्रवस्थान नहीं करते " योगियों के मनस्कार से भी विरोध है । वस्तुतः जब योगी संस्कार के उदय-व्यय का चिन्तन करते हैं, तब वे उनका निरोध प्रतिक्षण देखते हैं। अन्यथा उनको भी वह विराम उत्पन्न न हो, जो दूसरों को मरण-काल में निरोध देखकर होता है । यदि उत्पन्न संस्कार का कालान्तर के लिए अवस्थान हो, तो वह या तो स्वयमेव श्रव- स्थान करेगा, अर्थात् अवस्थान में स्वयं समर्थ होगा, अथवा किसी स्थिति-कारण से अवस्थान करेगा। किन्तु उसका स्वयं ताव काल के लिए अबस्थान अयुक्त है, क्योंकि उसका प्रभाव है। वह किनिन्मात्र भा उपलब्ध नहीं होता। कदाचित् यह कहा जायगा कि स्थिति-- कारक के बिना भी विनाश --- कारण के अभाव से अवस्थान होता है। किन्तु यदि विनाश कारण लाभ होता है, तो उसका पाछे बिनाश होता है । जैसे श्यामता का अग्नि से । यह अयुक्त है, क्योंकि उसका अभाव है। वस्तुतः पाछे भी कोई विनाश कारण नहीं है । अग्नि से श्यामता का नाश होता है, यह सुप्रसिद्ध है । किन्तु विसदृश को उत्पत्ति में उसका सामर्थ्य प्रसिद्ध है। वस्तुतः अग्नि के संबन्ध में श्यामता की सन्तति विसदृशी गृहीत होती है, किन्तु सर्वथा अप्रवृत्ति नहीं होती। जल का भी काथ होने से अग्नि के संबन्ध से उसकी उत्पत्ति अल्पतर-अल्पतम होती है, और अन्त में अतिमान्ध के कारण पुनरुत्पत्ति का ग्रहण नहीं होता। किन्तु अग्नि के संबन्ध से सकृत् ही उसका अभाव नहीं होता। पुनः यह युक्त नहीं है कि उत्पन्न का श्रवस्थान हो, क्योंकि लक्षण ऐकान्तिक है। भगवान् ने कहा है कि संस्कृत की नित्यता संस्कृत का ऐकान्तिक लक्षण है। यदि यह उत्पनमात्र होकर विनष्ट न हो, तो कुछ काल के लिए इसकी अनित्यता न होगी। कदाचित् यह कहा जायगा कि यदि प्रतिक्षण अपूर्व उत्पत्ति होती, तो यह प्रत्यभिज्ञान न होता कि यह वही है ! यह प्रत्यभिज्ञान अर्चि के समान सादृश्य की अनुत्ति से होता है। साहश्य से ऐसी बुद्धि होती है, उसके भाव से नहीं । इसका धान