पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७

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देहाभिमान नहीं रहता | दिव्य-देह का प्राविर्भाव होता है। इस समय एक ही चण में विश्व-दर्शन हो पाता है:-दर्श निखिलं लोकमादर्श इव निर्मले। यह जान वज्र-योग है, और स्वभाव-काय की अवस्था है। क्षरबिन्दु की देहरचनात्मक सृष्टि बताई गई है। अक्षर या अच्युतबिन्दु को सष्टि विशुद्ध ज्ञान-विज्ञानात्मक है। यह एकक्षणामिबुद्ध स्थिति ही सर्वार्थदर्शी वज्रसव की स्थिति समझनी चाहिये। इस स्थिति में श्वास-चक्र की क्रिया नहीं रहती। इस महादण को ही बुद्ध का कम-क्षण कहा जाता है। मनुष्यमात्र ही बुद्धत्व या पूर्णत्व का लाभ इसी महाक्षण में करते हैं। इसी का नाम दितीय-जन्म है । मूल-तन्त्र में कहा गया है:--जन्मस्थान जिनेन्द्राणा- मेकस्मिन् समयेऽक्षरे । यह स्वभाव-काय की अवस्था है। इसके बाद चितवज्रयोग होता है। पहले बो वनसत्व ये वही महासत्व के रूप में प्रकट होते है। उस समय परम अक्षर-सुख का अनुभव होता है। इसका नाम पंचाकार-अभि- संबोधि है । प्रादर्श-शान, समता-ज्ञान, प्रत्यवेक्षण-ज्ञान, कृत्यानुष्ठान-शान और पूर्ण विशुद्ध धर्मधातु का शान ये ही मुख्य ज्ञान है । द्रव्यादि पंचधातु और रूपादि पंचस्कन्ध ये दोनों प्रज्ञा और उपायात्मक है। ये पंचमंडल निरोध-स्वभाव हैं | यह धर्म और काल की अवस्था है । इस समय श्वास-चक्र पुनः कर्म में प्रवर्तित होता है। बब संभोग-काय की अभिव्यक्ति होती है, तो वाग्वनरूप से उसका निरूपण किया जा सकता है। यह महासच है, इसी का परिणाम है बोधिसत्व । यह दादशाकार सत्त्वार्थ बोधिसत्वों का अनुग्राहक है। यह सर्वसत्वरत के द्वारा धर्म-देशना करते हैं । यह विंशत्याकार अभिसंस्कार की दशा है । इसमें ५ इन्द्रिय, ५ विषय, ५ कर्मेन्द्रिय और निरावरण लक्षण द्वादश संक्रान्तियाँ है। सबके अन्त में कायवन-योग का निरूपण होता है । यह निर्माण-काय है। समय-सत्त्व षोडशाकार तथवेदनों के कारण अनुप्राहक है। अनन्त मायाजालों से काय का स्फुरण होता है। यहां की समाधि भी मायाजाल अभिसंबोधि है । इस अवस्था में एक ही समय में अनन्त तथा अपर्यन्त नाना प्रकार की माया के निर्माणलक्षण मोडश अानन्दमय बिन्दु का निरोध है। इस समय प्रसंगतः श्रानन्द के रहस्य के संबन्ध में दो चार बातें कहना आवश्यक है। स्थूल दृष्टि से अानन्द के चार भेद है-१.अानन्द, २. परमानन्द, ३. विरमानन्द, ४. सहजानन्द । जिस समय काम के द्वारा मन में क्षोभ होता है, वही समय अानन्द के उद्गम का है । वस्तुतः यह भाव का ही विकास है। शक्ति की अभिव्यक्ति से इसका प्राविर्भाव होता है । इसके बाद जब अभिव्यक्त शक्ति के साथ मिलन का पूर्णत्व सिद्ध होता है,तब बोधि- चित्त भी पूर्ण हो जाता है। इस पूर्णत्व का स्थान ललाट है । इस अानन्द का नाम परमानन्द