पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७३

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ससदानन्याय महायान का अर्थ गंभीर है। यह कतार्थं से भिन्न है, अतः रुतार्थ का अनुसरण करने से इसका अभिप्राय विदित नहीं होता; किन्तु इसलिए. यह कहना कि यह बुद्धवचन नहीं है, यदि कोई यह कहे कि भगवान ने इस अनागत भय को उपेक्षा के कारण व्याकृत नहीं किया, तो यह अयुक्त है । बुद्ध प्रत्यक्षदर्शी है । उनके ज्ञान की प्रवृत्ति प्रयत्नतः होती है। वह शासन के रक्षक हैं। उनमें अनागत ज्ञान का सामर्थ्य भी है, क्योंकि सर्वकाल में उनका शान अव्याहत होता है। अतः शासन में होने वाले किसी अनागत उपद्रव की वह उपेक्षा नहीं कर सकते। इन विविध कारणों से महायान का बुद्धवचनत्व सिद्ध होता है। महायान की उत्कृषता यदि कोई यह कहे कि श्रावकयान महायान है, और इसी से महाबोधि की प्राप्ति होती है, तो हम इसका विरोध करते हैं । श्रावकयान में वैकल्य है, क्योंकि इसमें श्रावकों के लिए अपनी विमुक्तिमात्र के उपाय का ही उपदेश किया गया है, और परार्थ कोई भी आदेश नहीं है। स्वार्थ परार्थ नहीं हो सकता । पुन: यह विरुद्ध है कि जो अपने ही परिनिर्वाण का अर्थी है, और उसी के लिए प्रयोग करता है, वह अनुत्तर सम्यक-संबोधि का लाभ करेगा । चाहे कोई बोधि के लिए चिर- काल तक श्रावकयान का अनुसरण कर वह बुद्ध नहीं हो सकता । बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए श्रावकयान उपाय नहीं है, और अनुपाय द्वारा प्रार्थित अर्थ की प्राप्ति नहीं होती;चाहे श्राप चिर- काल तक प्रयोग क्यों न करें। पुनः श्रावकयान में महायान का सा उपदेश नहीं उपलब्ध होता, अतः यह सिद्ध होता है कि श्रावकयान महायान होने की पात्रता नहीं रखता। श्रावकमान से विरोध -इतना ही नहीं। श्रावकयान और महायान का अन्योन्य- विरोध है । पाँच प्रकार से इनका विरोध है :-श्राशय, उपदेश, प्रयोग, उपस्तंभ, काल । श्रावकयान में श्रात्म-परिनिर्वाण के लिए ही श्राशय होता है । इसी के लिए इसका आदेश और प्रयोग है। इसका उपस्तम्भ (आधार ) परीत्त है, और पुण्य-ज्ञान-संभार में संग्रहीत है। इसके अर्थ की प्राप्ति भी अल्पकाल में ही होती है, यहाँ तक कि तीन जन्म में भी हो जाती है। किन्तु महायान में इसका सब विपर्यय है। इस अन्योन्य विरोध के कारण जो यान हीन है, वह वस्तुतः हीन है; वह महायान होने की योग्यता नहीं रखता। कदाचित् यह कहा जायगा कि बुद्धवचन का लक्षण यह है कि इसका सूत्र में अवतरण और विनय में संदर्शन होता है, और यह धर्मता का विरोध नहीं करता ( बुद्धवचनस्येदं लक्षणं यत् सूत्रेऽवतरति, विनये संदृश्यते, धर्मतां च न विलोमयति )| किन्तु महायान का यह ..महापरिनिब्बानमुक्त [दीघनिकाय, 1५४ तानि चे सुरो पोरिचमानानि विनये सन्धिस्सयमानानि सुरो चेव ओतरन्ति,विनये सन्दिरसन्ति, नियरय गन्तब्वं : मया इदं तस्स भगवतो वचनं ..... ति । इसमें 'धर्मता के अविलोमन' का लक्षण नहीं है, फिन्त रुख-सा-नीति में यह वाक्य पाया जाता है। भगवा पन धम्मसमावं भविखोमेन्तो तथा तथा धम्मदेसनं नियमेशि । YE