पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७४

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३८६ बौर-धर्म दर्शन लक्षण नहीं है, क्योंकि सर्व धर्म निःस्वभाव है, यह उसका उपदेश है, अतः यह बुद्धवचन नहीं है। यह श्राक्षेप अयथार्थ है । लक्षणों का कोई विरोध नहीं है। स्वकीय महायानसूत्र में महायान का अवतरण है। महायान में बोधिसत्वों का बो क्लेश उक्त है, उसके विनय में महा- यान का संदर्शन होता है। वस्तुत: विकल्प ही बोधिसत्वों का अंश है। श्रावकसान के विनय में भिक्षुओं के नियमों का उल्लेख है। महायान का विनय बोधिचर्या और शील का उपदेश देता है। पुनः महायान धर्मता के विरुद्ध नहीं है, क्योंकि यह उदार और गंभीर है । धर्मता से ही महाबोधि की प्रामि होती है। फिर महायान धर्मता के विरुद्ध न्यों हो? महायान से त्रस्त होने का कोई कारण नहीं है। इसमें केवल शून्यता का ही श्राख्यान नहीं है। इसमें संभारमार्ग का भी श्राख्यान है । इस अाख्यान का यथारुत अर्थ नहीं है, और बुद्धों का भाव अतिगहन है। इस कारण महायान से त्रास करने का कोई स्थान नहीं है । मुझे बोध न होगा, बुद्ध भी गम्भीर पदार्थ का बोध नहीं रखते, फिर वह क्या इसका उपदेश देंगे ? गम्भीर प्रतकंगम्य क्यों है ? गम्भीर पदार्थ के अर्थवेत्तानों का ही मोक्ष क्यों है, तार्किकों का क्यों नहीं है ? इत्यादि त्रास के हेतु प्रयुक्त है। महायान उत्कृष्ट है। उसकी देशना उदार और गम्भीर है । इसलिए उसमें अधिमुक्ति (अद्धा ) होनी चाहिये। इस प्रकार महायान की सत्यता को सिद्ध कर असंग शरणगमन को बोधिसत्व की अधि- मुक्ति का मूल आधार बताते है। शरण-मन-~यह यथार्थ है कि शरण (= त्रिरत्न ) गमन शासन के अादि से ही सब बौद्धों को समान रूप से मान्य है। किन्तु असंग का कहना है कि महायान में जो त्रिरत्न की शरण में जाता है, वही शरणागतों में सर्वश्रेष्ठ है। इसमें चार हेतु है:--सर्वत्रगार्थ, अभ्युपगमार्थ अधिगमार्थ, अभिभवार्थ । यह श्रग्रयान है, क्योंकि इसमें जो सिद्धि प्राप्त करता है, वह सत्वहित का साधन करता है। इसका प्रणिधान और इसकी प्रतिपत्ति विशिष्ट है, अतः इन यान का शरण भी अग्र है। इस यान में शरणप्रगत सर्वत्रग है। उसने सब सल्लों के समुद्धरण का भार अपने ऊपर लिया है । वह सब यानों में ( श्रावक, प्रत्येक-बुद्ध, बोधिसत्व) कुशल है । वह सर्वगत ज्ञान में कुशल है, अर्थात् पुद्गल-नैरात्म्य और धर्म-नैरात्म्य का ज्ञान रखता है । उसमें निर्वाण का सर्वत्रगार्थ है, क्योंकि वह निर्वाण और संसार में एक रस है,और उसके लिए, निर्वाण और संसार में गुण अथवा दोष की दृष्टि से विशेष नहीं है ( यो निर्वाणे संसरणंऽप्येकरसोऽसौ ज्ञेयो धीमा- नेष हि सर्वत्रग एवम् रा३)। इस विचार में नागार्जुन की शिक्षा की प्रतिध्वनि मिलती है। प्रारम्भ से ही हमको माध्यमिक विचार सरणी के चिह मिलते हैं। शरणगमन के अन्य लक्षण जैसा कि महायान में उपदिष्ट है, बोधिसत्व को पारमिताओं का अभ्युपगम और अधिगम है। पारमिताओं के अभ्युपगम से वह बुद्धपुत्र हो जाता है।