पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७५

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सप्तवच अध्याय उसका प्रणिधान और प्रयोग विशिष्ट है। वह सत्रों के समुद्धरण के श्राशय से बोधिचित्त का समादान करता है, और अत्यन्त उत्साह के साथ बोधि के लिए प्रयोग करता है। इस बुद्धपुत्र का बीज बोधिचित्त का उत्पाद है। प्रज्ञापामिता इसकी माता है, और प्रज्ञापारमिता से संप्रयुक्त पुण्य-ज्ञान-संभार गर्भ है, और करुणा अप्रतिम धात्री है । उसका अधिगम भी विशिष्ट है । उसको महापुण्य-स्कन्ध का लाभ होता है, उसके सर्व दुःख का उपशम होता है; सम्यक-संबोधि के क्षण में उसको बुद्ध के धमकाय की प्राप्ति होती है; उसको बलवैशारयादि कुशल संभार की प्रामि होता है, और वह भव तथा निरोध दोनों से विमुक्त होता है। इसी प्रकार बोधिमल्ल अपने विपन्न, उदग्र और अक्षय कुशल-मूल से श्रावकों को अभिभूत करता है। निर्माण में यह उसका विशिष्ट अभिभवार्थ है । उसके कुशल-भूल बीएए नहीं होते । उसके गुणों की अप्रमेय वृद्धि होता है, और वह अपने कृपाशय से इस जगत् का प्रतिवेध करता है, और महायान धर्म को प्रसिद्ध करता है। वोधिसत्य के गोत्र गुर गमन से बोधिसत्व के गोत्र' में प्रवेश होता है । गोत्र का अस्तित्व धातु-भेद, श्रधिमुक्ति-भेद प्रतिपत्ति-भेद और फल भद से निरूपित होता है । सत्रों के अपरिमाण धातु-भेद है। इसीलिए तीन यानों में गोत्र-भद है । सत्यों में अधिमुक्ति-भेद (= श्रद्धाभेद ) भी पाया जाता है। किसी की किसी यान में पहले से ही अधिमुक्ति होती है । यह गोत्र-भेद के बिना नहीं हो सकता । प्रत्ययवश अधिमुक्ति के उत्पादित होने पर भी प्रतिपत्ति-भेद होता है। कोई निर्वोदा होता है, कोई नहीं। यह गोत्र-प्रभेद के बिना संभव नहीं है। फल-भेद भी देखा जाता है, जैसे किसी को बोधि हीन, किसो का मध्य ओर किसी को विशिष्ट होती है। क्योंकि बीज के अनुरूप फल होता है। इसलिए यह प्रभद भी गात्र-मंद के बिना नहीं हो सकता। निमिर-चार निमित्तों से बोधिसत्वों के गोत्र का अग्रत्व प्रदर्शित होता है । श्रावकों के इस प्रकार के उदग्र कुशल-मूल नहीं होते। उनमें सब कुशल-मूल मा नहीं होते, क्योंकि उनमें बलवैशारयादि का अभाव है । श्रावकों में परार्थ भी नहीं होता और उनके कुशल-मूल अक्षय भी नहीं है, क्योंकि निरुपधिशेष-निर्वाण में उनका अवसान होता है । 1. अंगुत्तर ।।३.१ और ५।२३ में 'गोत्रभू' शब्द पाता है। नौ या दश भार्य पुद्गलों की सूची में इसका निम्नतम स्थान है। एक में स्रोतापत्ति फल प्रतिपत्रक के पश्चात् , दूसरी सूची में श्रद्धानुसारी के पश्चात् । 'पुगरपरि' में 'पुथुज्जन' (= पृथग्जन) से इसका ऊँचा स्थान है। इसके अनुसार 'गोत्रभू' वह पुद्गल है, जो मार्य धर्म में प्रवेश करने के लिए प्रावश्यक धर्म से युक है। माम्युत्पति (६४) में पॉप गोत्र गिनाए गए हैं; श्रावस्यानामिसमय, प्रत्येकबुद्ध, तथागत, भनिपत और भगोत्रक ।