पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७६

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बौद्धधर्म दर्शन बोपिसव-गोत्र में चार लिङ्ग होते है-१. सत्वों के प्रति कारुण्य, २. महायान धर्म में अधिमुनि, ३. शान्ति अर्थात् दुष्करचर्या की सहिष्णुता, ४. पारमितामय कुशल का समाचार (निष्पत्ति)। संक्षेप में गोत्रों के चार भेद हैं :-१. नियत, २. अनियत, ३. प्रत्ययवश बहार्य, ४. प्रत्ययस्थ हार्य। प्रसंग बोधिसत्व-गोत्र की उपमा महासुवर्णगोत्र से देते हैं, और इसके माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह अप्रमेय कुशल-मूल और शान का प्राश्रय है, तथा इससे बहुसत्व का परिपाक होता है । यह बोधिवृक्ष का प्रशस्त मूल है। इससे सुख-दुःख का उपशम होता है, और अपने तथा पराए हित-सुख के फल का अधिगम होता है। ( अधिकार ३) बोधिचिचोलाव बोधिसत्वचर्या का प्रारम्भ बोधिचित्त के उत्पाद से होता है । इस चेतना के दो पाले- बन है ।-महाबोधि और सत्वार्थ-किया। इसके तीन गुण हैं। इसमें पुरुषकार-गुण है, क्योंकि इसमें महान् उत्साह और दुष्कर प्रयोग होते हैं। इसमें अर्थक्रिया-गुण और फलपरिग्रह-गुण है, क्योंकि यह श्राम-पर-हित का साधन करता है, और इससे बोधि का समुदागम होता है। इस चित्तोत्पाद का मूल करुणा है । सदा सत्वों का हित संपादित करना इसका श्राशय है; महायानधर्म अधिमोक्ष है; इसका ज्ञान इस चेतना का प्रालंबन है; इसका यान उत्तरोत्तर छन्द है; इसकी प्रतिष्ठा बोधिसत्व के शीलसंवर में है; इसका श्रादीनव अन्य यान में चित्त की उत्थापना या अधिवासना है; इसका अनुशंस पुण्यज्ञानमय कुशलधर्म की वृद्धि है; इसका निर्माण पारमिताओं का सतत अभ्यास है; इसका भूमिपर्यदगान उस भूमि में प्रयोग से होता है। जिस भूमि में जिस चेतना का प्रयोग होता है, उसका उस भूमि में पर्यवसान होता है। एक समादान सांकेतिक चित्तोत्पाद होता है, और एक पारमार्थिक ! समादान परविशा- पन से होता है; यथा कल्याणमित्र के अनुरोध से, गोत्रसामर्थ्य से, कुशलमूल के बल से, श्रुतबल से अथवा शुभाभ्यास से । पारमार्थिक चित्तोत्पाद उपदेश-विशेष, प्रतिपत्ति-विशेष और अधिगम-विशेष से होता है । प्रमुदिता भूमि में इस चित्त का उत्पाद होता है। उसकी धमों में समचित्तता होती है, क्योंकि वह धर्म-नैरात्म्य का शान रखता है। उसकी सत्वों में सम- चित्तता होती है, क्योंकि वह प्रात्म-पर-समता उपगत है। उसकी सत्वकृत्यों में समचित्तता होती है, क्योंकि अपनी ही तरह वह सत्यों के दुःखक्षय की श्राकांक्षा करता है। उसको बुद्धत्व में समचित्तता होती है, क्योंकि वह अपने में धर्म-धातु का अभद जानता है । जो सव इस चित्तोस्पाद से वचिंत होते , वे उन चार सुखों को नहीं प्राप्त कर सकते जिनका लाभ बोधिसत्यों को होता है। जो सुख परार्थ-चिन्तन से, परार्थ के उपायलाम से, महायान के गंभीर सूत्रों के श्राभिप्रायिक अर्थ के जानने से और परम तत्व के संवर्शन से