पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८०

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कमिवाएं- अमिशा ही बोधिसत्वों के प्रभाव है। प्रसंग दिखाते हैं कि किस निभय, किस शान, किस मर्नासकार से इस प्रभाव का समुदागम होता है। इस प्रभाव का त्रिविष फल है। वह आर्य और दिव्य वास-विहहरों में नित्य विहार करता है, वमा विस लोक-बात में वह जाता है, वहां बुद्धों का पूर्वन और सवों का विशोधन करता है। वस्वतः पब सविकल्पक शान का स्थान प्रचा-पारमिता लेती है, अर्थात् निर्विकल्पक ज्ञान का परिग्रह होता है, तब यह गान धर्म-समूह पर अपना कारित्र कर प्रभाव-सिद्धि निष्पन्न करता है। तब कोई भी कार्य चित्त को व्याघात नहीं पहुँचाता, और योगी अर्थवशित्व प्राप्त करता है। प्रसंग इन अमिशानों का सविस्तार वर्णन करते हैं, और इस प्रकार विज्ञानवाद का दूसरा नाम योगाचार सार्थक होता है। मह मत. माध्यमिक और एक प्रकार के अद्वय-विज्ञानवाद के बीच की वस्तु है। यह मत प्रात्मप्रतिषेध को पवित कर उपनिषदों का स्मरण दिलाता है। इस प्रकार महायानसूत्रालधार दृष्टियों का सन्तुलन करने की चेष्टा करता है, किन्तु दोनों एक क्तुि पर मिलते हैं। लोक भ्रान्तिमात्र है, यह समान बिन्दु है । यह निन्दु नागार्जुन और विशनवादी अद्वयवाद दोनों में पाया जाता है (रेने से )। निर्विकल्पक ज्ञान का परिग्रह कर चतुर्थ ध्यान में समापन्न हो योगी सब लोकधातुओं को उनके सत्वों के सहित तथा उनके विवर्त- संवत के हित माया के सदृश देखता है, और वह विचित्र प्रकारों से उनका यथेष्ट संदर्शन कराता है, क्योंकि उसको वशिता का लाभ है। मानवशित्व से वह शुद्धि को प्राप्त होता है, और अपनी इच्छा के अनुसार बुद्धक्षेत्र को विनयजनों को दिखाता है और वह सत्वों का परिशोधन भी करता है। जो सत्व ऐसे लोक- पात्रों में उपपन है, जो बुद्धनाम से विरहित , उनको वह बुद्धनाम सुना कर बुद्ध में प्रतिपक्ष करता है, और वह बुद्धनाम से अविरहित लोकधानुत्रों में उत्पन्न होता है। उसमें सत्वों के परिपाचन की शक्ति होती है। वह मेशपरवथ पात् को अपने वश में स्थापित करता है। वह सदा परहित-क्रिया में सुख का अनुभव करता है, और भव का भय नहीं करता। आस-परिपाक पारमिताओं के प्रयोग-उछ प्रभाव के कारण बोधिसत्व प्राम परिपाक करता है, तदनन्तर सत्वों के परिपाक की योग्यता को प्राप्त होता है, और सत्वों का प्रतियरण होने के कारण जगत् का प्रबन्धु होता है। महायान देशना में रुचि, देशिक में प्रसाद (- श्रद्धा), केशों का प्रथम, सत्वों पर अनुकम्पा, दुष्करचर्या में सहिष्णुता, ग्रहण-चारप-प्रतिवेष की मेधा, अधिगम की प्रबलता, मारादि से अहार्यता और माहाणिक ( -प्रधान) अंगों से समन्वागम भाम-परिपाक के सक्षण हैं। अपना परिपाचन कर बोधिसत्व दूसरों का परिपाक करता है। वह सलों का प्रवियरप होता है । वह सतत धर्मकाय की वृद्धि करता है।