पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८२

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३६५ बरोब-धर्म दर्शन महायान मानता है कि बुद्धों का उपकारक कारित्र नित्य होता है, और इसीसे यह कठिनता उत्पन्न होती है, किन्तु उसने त्रिकायबाद से इस कठिनता को दूर किया है । धर्मकाय स्वाभाविक काय है। संभोगकाय वह काय है, जिससे पर्ष-मण्डल में वह धर्मसंभोग करते हैं। निर्माणकाय वह काय है, जिसको निर्मित कर बुद्ध सत्वों का उपकार करते है। किन्तु इन विशेषों के में केवल भ्रान्ति की लीला है, जिससे सविकल्प परिकल्पित-चित्त की मौलिक शान्ति को तुम्ध करता है । बुद्ध न एक है, न अनेक । केवल बोधिमात्र है, जिसकी वृत्ति एक समान और सतत है ( सिलवां लेवी की भूमिका, पृ. २४) । लक्षण-बोधि पर बो अध्याय है, वह वस्तुतः विज्ञानाद का एक प्रधान ग्रन्थ है। ६।१-२ में बुद्धत्व का लक्षण यही दिया है कि यह सर्वावरण से निर्मल साकारज्ञता है। ६४-५ में कहा है कि बुद्धत्व का लक्षण अद्वय है । बुद्धत्व का अर्थों के साथ अतिसूक्ष्म संबन्ध है । सब धर्म ( अर्थात् सब श्रर्थ) बुद्धत्व है, किन्तु यह स्वयं धर्म नहीं है । यह शुक्लधर्ममय है, किन्तु यह शुक्लधर्मों से निरूपित नहीं होता। ६।५ में कहा है कि सब धर्म बुद्धत्व है, क्योंकि यह तथता से अभिन्न है, और तथना की विशुद्धि से प्रभावित हैं । किन्तु बुद्धत्र कोई धर्म नहीं है, क्योंकि धर्मों का स्वभाव परिकल्पित होता है, और बुद्धल्य परमार्थ है । पुनः बुद्धत्त्व सब धर्मों का समुदाय है, अथवा सब धर्मों से व्यपेत है (६६)| बुखानुभाव-यह बुद्धस्व सर्वक्लेश से मदा परित्राण करता है; जन्म, मरण तथा दुश्चरित से भी परित्राण करता है। बुद्धानुभाव से सत्र उपद्रव शान्त होते हैं। अन्धे अखि पाते हैं, बधिर श्रोत्र; विक्षिप्त-चित्त स्वस्थ होते हैं; ईतियां शान्त होती हैं । बुद्ध की प्रभा अपाय से परित्राण करती है। बुद्धल तीथिक-दृष्टि और सत्काय-दृष्टि से परित्राण करता है। यह अनुपम शरण है । जब तक लोक का अवस्थान है, जब तक बुद्धत्व सब सत्वों का सबसे बड़ा शरण है (६११)। माश्रय परिकृति-वशावरण और शेयावरण के बीज जो अनादिकाल से सतत अनु- गत है, बुद्धत्व में अस्त होते हैं। बुद्धव ही श्राश्रय-पग्वृित्ति है । बुद्धन्त्र से ही विपक्ष बीज का वियोग और प्रतिपक्ष-संपत्ति का योग होता है, और बुद्धत्व की प्रामि निर्विकल्प जान-मार्ग से होती है । इस प्रकार सुविशुद्ध लोकोत्तर ज्ञान का लाभ कर तथागत नीचे लोक को देखते हैं; जैसे कोई महान् पर्वत के शिखर पर से देखता हो। उनमें श्रावक-प्रत्येकबुद्ध के लिए भी जो शमाभिराम हैं, और अपना ही निर्वाण चाहते हैं, करुणा उत्पन्न होती है । फिर दूसरों को क्या कथा, जिनकी रुचि भव में है (अघाभिराम ) १ (६/१३ )। सर्वगतस्य तथागतों की परिवृत्ति परार्थ-वृत्ति है। यह अद्वय है, और सर्वगत वृत्ति है। यह संस्कृत और असंस्कृत है, क्योकि यह न संसार और न निर्माण में प्रतिक्षित है (६।१४)। अरंग नागार्जुन के दिए एक दृष्टान्त को देखकर बुद्धव के सर्वगतत्व को दिखाते हैं; जैसे अाकाश सदा मर्वगत है, उसी प्रकार बुद्धत्व का स्वभाव सर्वगतत्व है । जैसे विविध रूपों में श्राकाश सर्वग है, उसी प्रकार गलों में बुद्धल का मर्यगतत्व है । बुद्धत्व सत्र सत्वों में असन्दिग्ध