पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८३

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ससदशमध्याय रूप से व्यवस्थापित है, क्योंकि यह सब सबों को परिनिष्पनिता अपने से अंगीकृत करता है (१५)। फिर ऐसा क्यों है कि बुद्धत्व का यह सर्वगतत्व नाम-रूप के जगत् में नहीं प्रकट होता । श्ररांग उत्तर देते हैं :- यथा भिन्न ( भग्न) जल-पात्र में चन्द्रविम्ब नहीं टिम्बाई देता, उसी प्रकार दुष्ट सत्वों में जो अपात्र हैं, बुद्धबिध का दर्शन नहीं होता (६।१६); यथा अग्नि अन्यत्र मलती है, अन्यत्र शान्त होनी है, उसी प्रकार जहाँ बुद्ध-विनय होते हैं, वहां बुद्ध का दर्शन होता है, और जब विनीन हो जाते है नब उनका श्रदशन होता है। शांकर वेदान्त में हम इन्हीं दृष्टान्तों को पाने हैं । वडा पूर्ण ब्रह्म को मन-विशुद्ध और सर्व-परिपूर्ण माना है और उसके अागन्तुक अावरण और उपाधियां हम स्वाभाविक परिणता को, कम से कम देखने में, अवि- च्छिन्न रूप से अाम्हादित करती हैं । अर्थचर्या का अभिप्राय--पुन: हम किस प्रकार इसका समन्वय करते हैं कि बोधिसत्व सत्वों की अर्थ-वर्या करते हैं, और उनका बुद्धकार्य अनाभोग से ही सिद्ध होता है, और साथ ही साथ श्रनासव धातु निश्चन और निक्रिय हैं। श्रमंग इसके उत्तर में कहते हैं-अाभोग के बिना बुद्ध में देशना का समुन्नव रगी प्रकार होता है, जैसे अघटित तूरियों में शब्द की उत्पत्ति होती है । पुन: जैसे विना याना के भागा अपने प्रभाव का निदर्शन करती है, उसी प्रकार श्राभोग के बिना बुद्धों में भी कृत्य का निदर्शन होता है ( ६१८-१६ )। जैसे अाकाश में लोक-क्रिया अविच्छिन्न देखो जाती है, उसी प्रकार अनासव-धातु में युद्ध की क्रिया अविच्छिन्न होती है, और जैसे अाकाश में नोक-क्रियाओं का प्रथिन्छः होने पर भी अन्यान्य क्रिया का उदय व्यय होता है, उसी प्रकार अनासर धातु में बुद्धकाय का उदय-व्यय होता है। (६२०.२१)। बुद्धत्व का परमात्म-भाव बुद्धत और लोक का था मंबन्ध है। असंग कहते हैं...यपि तथता पौर्वापर्य से विशिष्ट है, और इसलिए शुद्ध नहीं है, तथापि अब यह मर्च श्रावरण से निर्मल हो जाती है, तब वह मनापगम के कारण शुद्ध हो जाता है, और बुद्धत्व से अभिन्न हो जाती है (हा२२)। बुद्ध, जिन्होंने नैगम्य द्वारा मार्ग का लाभ किया है, विशुद्धि शून्यता में आत्मा की शुद्धता का लाभ करने हैं, और अम-महारता को प्राप्त होते हैं । (६।२३)।' यह अनासः पातु में बुझओं के परम अाला का निर्देश है। यह 'परमात्मा' शब्द श्राश्चर्यजनक है । असंग यह भी कहते हैं कि इसका कारण यह है कि बुद्धों का परमात्मा अग्र नैरात्म्यात्मक है । अग्र नराम्य विशुद्ध तयता है। यही बुद्धों की आत्मा है, अर्थात् स्वभाव है। इसके विशुद्ध होने पर अग्र नामकी प्रानि हो..: है और यह शुद्ध श्रात्मा है। अतः शुद्धात्मा के लाभी होने से बुद्ध अात्म-माहात्म्य को प्राप्त होते हैं, और इसी अभिसन्धि में बुद्धों की परम अात्मा अनासव-धातु में व्यवस्थापित होती है (६२३)। .. शम्पतायां विशुद्धायां नैराम्यान्मार्गलाभतः । सुद्धाः शुद्धारमलाभित्वाद् गता आत्ममहारमताय [ ]