पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पौर-बरन शंभरमात्मवाद से दुखना-यहाँ हम यह कह सकते हैं कि यह विचार कतिपय उपनिषदों के वाक्यों का स्मरण दिलाते हैं। जो आत्मा नैराम्यस्वभाव है, अथवा यो कहिये कि पो अल्मा अपने मूल में, नैरात्म्य में, विलीन है, वह बृहदारण्यक के निगुण प्रात्मा के समीप है । इस प्रकार नागार्जुन की दृष्टि से प्रस्थान कर एक अनचान मोड़ हमको शंकर के अद्वैतवाद की चौखट पर ले आई है। इसमें सन्देह नहीं कि शंकर का प्रतिवाद अात्मवाद कहलायेगा, जब कि असंग का अद्वैतवाद विज्ञानवाद है; किन्तु यह विज्ञानवाद ऐसा है कि सर्थ से ही विलुप्त होने लगता है । श्रात्मसंज्ञा का (जिसका स्वभाव नैरात्म्य का है ) व्यवहार कर प्रसंग के बाद की भाषा वेदान्त की भाषा के अत्यन्त समीप श्रा जाती है, और इसी प्रकार यदि हम उपनिषद् और शंकर के निगुण, निर्विशेष प्रात्मा को लें, बो शन्यता से इतना मिलता जुलता है, तो हमको जात होगा कि शकर के प्रात्मा और असंग के आत्म-नैरात्म्य के बीच मितना कम अन्तर है ( रेने से )। किन्तु इसके आगे के श्लोक में (२४) असंग कहते है-इसी कारण कहा गया है बुद्धत्व न भाव है, न अभाव है। बुद्ध के भावाभाव के प्रश्न में ( मरणानन्तर तथागत होते हैं या नहीं इत्यादि) हमारा अब्याकृत नय है । हम नहीं कह सकते कि बुद्धत्व भाव है, क्योंकि पुद्गल और धर्म का अभाव इसका लक्षण है, और यह तदात्मक है । पुना हम यह भी नहीं कह सकते कि यह अभाव है, क्योंकि तयता इसका लक्षण है, और इस लिए यह भाव है (६२४)। असंग अपने बुद्धव को भाव और अभाव के बीच रखने के लिए कुछ और भी हेतु देते है। लोहे की दाह-शान्ति और दर्शन की तिमिर-शान्ति भाव नहीं है, क्योंकि दाह और तिमिर का अभाव इसका लक्षण है । यह अभाव भी नहीं है, क्योंकि इसका लक्षण शान्ति भाव है। इसी प्रकार बुद्धों के चित्त-शान में राग और अविद्या की शान्ति को भाव नहीं कहा गया है, क्योंकि राग और अविद्या के प्रभाव से इसका उत्पाद होता है, तथा इसे अभाव मी नहीं कहा गया है, क्योंकि उस उस विमुक्ति लक्षण के कारण यह भाव है (६।२५) । प्रसंग प्रविवार यह एक प्रकार के अद्वैतवाद के समीप है। बुद्धों के अनासव-धात में न एकता है, न बहुता । एकता नहीं है, क्योंकि बुद्धों के पूर्व देह थे; और बहुता नहीं है, क्योंकि आकाश के तुल्य बुद्ध का देह नहीं है (२६) । पुन:-जैसे सूर्य के मण्डल में अप्रमेय रश्मियां व्यामिश्र है, जो सदा एक ही कार्य में संलग्न रहती है; और लोक में प्रकाश करती है, उसी प्रकार अनासव-धातु में अप्रमेय बुद्ध होते है जो एक ही मिश्र कार्य में संलग्न होते हैं, और शान का आलोक करते हैं। जैसे एक सूर्य-रश्मि के निासरण से सब रश्मियों की विनिःसूति होती है, उसी प्रकार बुद्धों की मान-प्रवृत्ति एक काल में होती है। जैसे सूर्य- रश्मियों की वृत्ति में ममत्व का प्रभाव है, उसी प्रकार बुद्ध के शान की वृत्ति में ममल नहीं है। जैसे सूर्य की रश्मियों से जगत् सकृत् अवभासित होता है, उसी प्रकार इह-शान से सर्व सकत