पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८५

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सवय अभ्यास प्रमासित होता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें मेषादि से प्राप्त होती है, उसी प्रकार सत्वों की दुष्टता बुद्ध-ज्ञान का आवरण है। यथा पांशुवश वस्त्र कहीं रंगों से विचित्रित और कहीं अविचित्रित होता है, तथैव प्रावधवश अर्थात् पूर्व प्रणिधानचर्या के बलाधान से बुद्धों की विमुक्ति में शान की विचित्रता होती है, किन्तु भाषक-प्रत्येकबुद्ध की विमुक्ति में प्रविचित्रता होती है (E२६-३५ )। ये उपमाएं हमको अद्वैतवाद के दरवाजे पर ले जाती है। द्रव्य और स्वभाव के स्थान में असंग तथता और बुद्धत्व का प्रयोग करते हैं। सब की तथता निर्विशिष्ट है, किन्तु यही तपता बन विशुद्धिस्वभाव की हो जाती है, तब तथागतत्व हो जाती है। इसीलिए सब सत्व तथागत-गर्म है (६/३७ )। पुन: लौकिक से बुद्धत्व में परिणत होने में सब धर्मों की जो परावृत्ति होती है, उसका वर्णन असंग करते हैं। बुद्धों का विभुत्व अप्रमेय और अचिन्त्य होता है । विभुत्व के साथ साथ निर्विकल्पक सुविशुद्ध शान होता है। उनके अर्थ विज्ञान और विकल्प की परावृत्ति होती है। इससे र यथाकाम भोग-संदर्शन करते हैं, और उनके सब शान और कमों को कमी व्याघात नहीं पहुँचता । प्रतिष्ठा की परावृत्ति से बुद्धों के अनासव धातु में (अचलपद या श्रमलपद ) अप्रतिष्ठित-निर्वाण होता है (४५) । तथागत न संस्कृत धातु में प्रतिष्ठित है, और न संस्कृत धातु में; और न वहां से व्युत्थित है । निर्वाण हीनयान दो प्रकार के निर्वाण से अभिज्ञ है-सोपधिशेष और निरुपधिशेष । पहली जीवन्मुक्त की अवस्था है। इस अवस्था में अर्हत् को शारीरिक दुःख भी होता है। दूसरा निर्वाण वह है जिसमें महत् का, मृत्यु के पश्चात्, अवस्थान होता है । प्रतिष्ठित निर्वाण-महायान में एक अवस्या अधिक है। यह अप्रतिष्ठित निर्वाण की अवस्था है, क्योंकि बुद्ध यद्यपि परिनिर्वृत हो चुके हैं और विशुद्ध तथा परम शान्ति को प्राप्त 1, तथापि वह शून्यता में विलीन होने के स्थान में संसार के तट र संसरण करने वाले चोवो की रक्षा के निमित्त स्थित रहना चाहते हैं, किन्तु इससे उनको इसका भय नहीं रहता कि उनका विशुद्ध ज्ञान समल हो जायगा ( सिलवां लेवी की भूमिका, पृ० २७ टिप्पणी ४)। बोधिसत्व का परिपाक-विज्ञानवाद की दृष्टि में सकल लोकधातु शुभ में वृद्धि को प्राप्त होता है, अर्थात् कुशलमूल का उपचय करता है, और विशुद्ध विमुक्ति में परमता को प्राप्त होता है । इस प्रकार यह परिपाक नित्य होता है, क्योंकि लोक अनन्त है (Ere)प्रसंग कहते हैं कि बोधिसत्वों के परिपाक का यह लक्षण आश्चर्यमय है, क्योंकि यह धीर सदा सब समय नित्य और भुव महाबोधि का लाभ करते हैं, जो अशरणों का शरण है । इसमें आश्चर्य भी नहीं है, क्योंकि वह तदनुरूप मार्ग की चर्चा करते हैं (६५.)। 1. प्रतिपावाः परावृत्ती विभुत्वं सम्बते परम् । अप्रतिष्ठितविणिं नामले पदे [ery]