पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८७

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ससदर अध्याय गया, और धर्म-संभोग-क्रिया की दृष्टि से भिन्न भिन्न लोकधातु की यह काय मिन है। नैर्माणिक काय अप्रमेय है । इसका लक्षण परार्थ-संपत्ति है जब कि सांभोगिक काय का लक्षण स्वार्थ-संपत्ति है। इसी काय का दर्शन विनेयजन करते हैं । यिनेयजनों के विमोचन का यह महान् उपाय है। अन्य ग्रन्थों में धर्मकाय के संबंध में अन्य विचार मिलेंगे। धर्मकाय को प्रपश्चातीत, एकता अनेकता से विगत, भावाभावरहित, नित्य, अलक्षण अर्थात् निर्विकल्पक और निर्विशेष और परमार्थ से अभिन्न मानते हैं। बोधिचर्यावतारपञ्जिका में प्रज्ञाकरमति इसी अर्थ में कहते है कि बुद्धत्व को, जो प्रपञ्चातीत, अाकाशसम है, धर्मकाय कहते हैं । यही परमार्थ सत्य है, और इमी अर्थ में महायानसूत्रालंकार का यह वाक्य है-"अाकाश विभु है (सर्वगत है ); विभुत्व भी बुद्धभ्यभाव है" [बोधिचर्यावतारपंजिका, ६१५] । माल्टरमरी का निष्कर्ष कदाचित् इस धर्मकाय को एक प्रकार का गुणात्मक और नैतिक श्राकाश कह सकते हैं। इन विविध उद्धरणों को एकत्र कर प्राल्टरमर्ग धर्मकाय पर लिखते हैं कि यह विभु है, और इसलिए सब सत्व इससे समवेत हैं। किन्तु केवल बुद्ध में यह विशुद्ध है। अन्य सत्यों में यह बीजरूप से विद्यमान है। किन्तु उनके लिए यह आवश्यक है कि वह उा मल को अपगत करें जिससे यह संसार में उपलिप्त होते है । यह कहकर अपनी व्याख्या को समाप्त करते हैं: -जब धर्मकाय धर्मधातु का समानार्थक हो तो इस शन्द का प्रयोग बुद्ध के लिए करना उचित न था। कदाचित् इसीलिए त्रिकाय के वाक्य में इसके स्थान में स्वाभाविक काय का प्रायः प्रयोग होता है । धर्मधातु और धर्मकाय समानरूप से भाव के मूलाश्रय को प्रज्ञप्त करते हैं, और स्वाभा- विकादि काय केवल इस सर्वगत श्राश्रय की वृत्तियां हैं। कदानित् यहाँ यह दुहराना अनुनित न होगा कि नागार्जुन के बाद से प्रस्थान कर असंग का याद अद्वयवाद और विश्वदेवैक्यवाद की सीमा पर है। असंग इस अद्वयवाद और इस विश्वदेवैश्यवाद का समर्थन करते है, और बहुदेववाद से इनको सुरक्षित रखते हैं। वह कहते हैं कि सब बुद्धों के त्रिकाय में कोई भेद नहीं है। सब बुद्धों के तीनों काय यथाक्रम अाश्य, प्राशय और कर्म की दृष्टि से समान है। धर्मकाय आश्रय- वश समान है, क्योंकि धर्मधातु अभिन्न है । सांभोगिक काय अाशयवश समान है, क्योंकि बुद्ध' का कोई पृथक् प्राशय नहीं है । निर्माण कर्मवश समान हैं, क्योंकि सबका कर्म साधारण है (६६६)। पुनः इन तीनों कायों में यथाक्रम त्रिविध नित्यता है । इसीलिए तथागत नित्यकाया कहलाते हैं। स्वाभाविक की नित्यता प्रकृति से है। वह स्वभाव से ही नित्य है । सांभोगिक की नित्यता धर्मसंभोग के अविच्छेद से है। नारि की नित्यता प्रबन्धकश है, क्योंकि नैर्मा- णिक के अन्तर्हित होने पर पुनः पुनः निर्माण का दर्शन होता है । पुरका चतुर्विध ज्ञान अन्त में प्रसंग बुद्ध के चतुर्विध ज्ञान का उल्लेख करते है। यदि हमको यह मान्य है कि श्रसंग का सिद्धान्त शुद्ध विधानवाद का है तो यह विषय मुख्य हो