पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८८

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१.. नौद-ब-दर्शन पाता है। आवशं भान सर्वोच्च है। यह अचल है, और शेष तीन शानों का ( समता', प्रत्यवेक्षा, और कृत्यानुष्ठान -यह चल ) आश्रय है। आदर्श गान ममत्व से रहित, पेशवा अपरिच्छिन्न और कालता सदानुग है। यह सर्व शेय के विषय में असमूह है, क्योंकि प्रावरण विगत हो गये हैं। यह कभी शेयों के संमुख नहीं होता, क्योंकि इसका कोई श्राकार नहीं (८)। प्रादर्श शान समतादि शान का हेतु है। इस लिए यह एक प्रकार से सब गानों का पाकर है। इसे आदर्श शान इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसमें संभोग, बुद्धत्व और तज्ज्ञान का उदय प्रतिबिम्ब के रूप में होता है । (६६९)। सत्वों के प्रति समता ज्ञान वह है, वो अप्रति- हित निर्वाण में निविष्ट है । यह सब समय महामैत्री और करुणा से अनुगत होता है। यह सत्वों को उनकी श्रद्धा (अधिमोक्ष ) के अनुसार बुद्ध के बिम्ब का निदर्शक है । प्रत्यक्षी शान वह है, जो शेयविषय में सदा अव्याहत है । परिषन्मण्डल में यह सब विम् वियों का निदर्शक है । यह सब संशय का विच्छेद करता है । यह महाधर्म का प्रवर्षक है । कल्पानुष्ठान हान सर्व लोकधातु में निर्माणों द्वारा नाना प्रकार के अप्रमेय और अचिन्त्य कृत्यों का शन है (६७४-७५)। उपकी एकता पनेकदा इस अधिकार को समाप्त करने के पूर्व असंग बुद्ध की एकता-अनेकता के प्रश्न का विचार करते हैं । यदि कोई कहता है कि केवल एक बुद्ध है, तो यह इष्ट नहीं है, क्योंकि दुखगोत्र के अनन्त सत्व है। तो क्या इनमें से एक ही अभिसंबुद्ध होगा, और अन्य च होंगे ? ऐसा कैसे हो सकता है । इस प्रकार दूसरों के पुण्यज्ञानसंभार व्यर्थ होंगे, क्योंकि उनकी अभिस- बोधि न होगी । किन्तु यह न्ययंता अयुक्त है। इस हेतु से भी बुद्ध एक नहीं है। पुनः कोई प्रादिशुद्ध नहीं है, क्योंकि संभार के बिना बुद्ध होना असंभव है, और बिना दूसरे बुद्ध के भार का योग नहीं है, अतः एक बुद्ध नहीं है । बुद्ध की अनेकता भी इष्ट नहीं है, क्योंकि अनासक धातु में बुद्धों के धर्मकाय का अभेद है (६७७)। चो अविद्यमानता है वही परम विद्यमानता है; अर्थात् जो परिकल्पित स्वभाववश अविद्यमानता है, वही परिनिष्पन्न स्वभाववश परम विद्यमानता है । भावना का बो अनुपलम्भ है, वही परम भावना है। वो बोधिसत्व इन सबको कल्पनामात्र देखते हैं, उनको बोधि की प्राप्ति होती है। उपवियों के भामाद से उखमा-हम उपनिषदों के श्रदयवाद के इतने समीप है कि अलंग भी उपानिषदों का प्रसिद्ध दृष्टान्त देते है: -बब तक नदियों के श्राश्रय अलग अलग ६, उनका मल भिन्न भिन्न है, उनका कृत्य अलग अलग होता है; जब तक उनका बल खल्स होता है, थोड़े ही बलाश्रित प्रापी उनका उपभोग करते हैं। किन्तु जब यह सब नदियाँ समुद्र के प्रवेश करती है, और उनका पक श्राश्रय हो पाता है, उनका एक महाबल हो पाता है, उनके सत्य मिल होकर एक हो जाते है, तब वह बृहत्समद की उपभोग्य हो जाती है, और