पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४८९

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मसवरा अन्याय १०१ यह क्रम नित्य चलता रहता है। इसी प्रकार बोधिसत्वों का आश्रय जब तक पृथक् पृथक् होता है, उनके मत भिन्न भिन्न होते हैं, उनके कृत्य पृथक् पृथक् होते हैं, और उनका अवबोध स्वल्प होता है, तब तक वह सब का ही उपकार करते हैं । बुद्धत्व में उनका प्रवेश नहीं हुअा, किन्तु बब वह बुद्धत्व में प्रविष्ट हो जाते है तब सबका श्राश्रय एक हो जाता है, उनका एक महान् अवबोध हो जाता है, और उनका कार्य मिश्र होकर एक हो जाता है, तब वह सब सत्वों के उपभोग्य हो जाते है (६२-६)। धर्म-पर्वेषण ग्यारहवे अधिकार में धर्म (आलम्बन ) का पर्येषण किया गया है। धर्म शब्द के दो अर्थ हैं। बुद्ध की शिक्षा, अदेश, सिद्धान्त धर्म है । दूसरे अर्थ में धर्म अध्यात्म-श्रालम्बन, बाय-बालम्बन और दोनों है। कायादिक आध्यात्मिक और बाय दोनों है। ग्राहकभूत कायादिक श्राध्यामिक है, ग्राह्यभूत बाह्य है, दय इन्हीं दो की तथता है। द्वयार्थ से दो श्रालम्बनों का लाभ होता है। यदि वह देखता है कि ग्राह्यार्थ से प्राहकार्थ अभिन्न है और ग्राहकाथ से ग्राखार्थ अभिन्न है तो समस्त आध्यात्मिक और बाह्य पालम्बन की वयता का लाभ होता है क्योंकि उन दो के द्वयभाव का अनुपलम्भ है। (१२५)। असंग कहते हैं कि गदि मनोजल्पवश अर्थख्यान का प्रधारण ( प्रविचय ) होता है और यदि चित्त नाम पर स्थित होता है तो धर्मालम्बन का लाभ होता है। मनोजल्प के अतिरिक्त कुछ नहीं है और द्वय का अनुपलम्भ है । (११॥६-७) इस विषय पर सिलवां लेवी अपनी भूमिका में कहते हैं कि जब चित्त समाहित होता है तब निश्चित यथोक्त अर्थ का मनोजल्प से प्रधारण होता है । चिन्तामय ज्ञान अर्थ (और उसके श्रालंबन ) का मनोजरूप से अभेद सिद्ध करता है। अन्त में भावनामय ज्ञान से चित्त अर्थ विरहित नाम पर ही स्थित होता है । अष्टादशविध मनस्कार इस कार्य में योग देते हैं। तब धर्मतत्व का लाभ होता है । धर्म के तीन स्वभाव-धर्मतत्व में तीन स्वभाव संग्रहीत हैं। ये इस प्रकार है- १. परिकल्पित, २. परतन्त्र, ३. परिनिष्पन्न । परिकल्पित ग्राह्यग्राहक लक्षणात्मक है। अतः द्वयात्मक है। परतन्त्र द्वय का सनिश्रय है। परिनिष्पन्न अनभिलाप्य और अप्रपञ्चात्मक है। किन्तु धर्म स्वयं भ्रान्तिमात्र है, माया है। चित्त में ही द्वयभ्रान्ति है । चित्त स्वयं धर्मों का निर्माण करता है, और प्राणाहकमाव में द्विधा विमरू हो जाता है; तथापि वह धर्मों को सत् मानता है । द्वय को श्रदय करने के लिए इनके बुद्धि-संबध का जानना श्रावश्यक है। चित्त अपना विवेचन कर या तो अपना लक्षण परिकल्पित बताता है जो जल्प और तदर्थ (या बालंबन) है; अथवा परतन्त्र बताता है, जो नाम, रूप, चित्त, विधानादि है अथवा परिनिष्पन्न बताता है, तथता है। वस्तुतः इन अप्रत्यक्ष लक्षणों से यह अवगत होता है कि कोई धर्मों की परिचित विज्ञप्ति है, जिससे ही चित्त और उसके लक्षणों के बीच का संबध युक्त हो सकता है। जो मनस्कार इस संबन्ध को स्थापित और निरूपित करता है, यह लौकिक नहीं है, यह मनस्कार योगियों का है। यह पाँच पाद में राय से श्रदय को जाता है:-यह धर्मतत्व का निग्रह करता है। यह योनिशोमनस्कारका लाम