पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९

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नियोजित होकर त्रिकोण की रचना करते हैं। इसी का नाम 'ए' कार है। यह विसर्गानन्दमय सुन्दर रूप में वर्णित होता है (स्मरण रहे कि अशोक की ब्राझी लिपि में भी 'ए' कार त्रिकोणा- कार ही है। त्रिकोणमेकादशकं हिगेहं च योनिकम् । शृङ्गाटं चैव 'ए'कारनामभिः परिकीर्तितम् ॥ इच्छा, शान, तथा क्रिया ये तीनों त्रिकोण के रूप में परिणत होते हैं। विसर्गरूप पराशक्ति के अानन्दोदय क्रम से लेकर क्रिया-शक्ति पर्यन्त रूप ये त्रिकोण ही उल्लसित होते है। यहाँ की शक्ति नित्योदिता है । इसीलिए यह परमानन्दमय है। इस योगिनी जन्माधार त्रिकोण से कुटिलरूपा कुंडलिनी शक्ति प्रकट होती है। त्रिकोण भगमित्युकं वियत्स्थं गुप्तमण्डलम् । इच्छा-ज्ञान-क्रिया-कोणं तन्मध्ये चिचिनीक्रमम् ॥ बौद्धो का सिद्धान्त भी ऐसा ही है :- 'काराकृति यदिव्यं मध्ये 'व'कारभूषितम् । श्रालयः सर्वसौख्यानां बोधरत्नकरराडकम् ॥ बाहर दिव्य 'ए'कार है । त्रिकोण के मध्य में कार है। इसके मध्य बिन्दु में सर्वसुख का श्रालय बुद्धरत्न निहित रहता है। यह प्रज्ञा ही रत्नत्रय के अन्तर्गत धर्म है। इसीलिए 'ए'कार को धर्म-धातु कहते हैं। बुदरत इस त्रिकोण के भीतर या पड्कोण के मी मध्य- बिन्दु में प्रच्छन है। तान्त्रिक-बौद्ध जिस मुद्रा कहते हैं, वह क्ति की है। अभिव्यक्ति या बाह्य रूप है। मुद्रा के चार प्रकार हैं:--कर्ममुद्रा, धर्मभुद्रा, महामुद्रा और समयमुद्रा। गुरुकरण के बाद साधना के लिए शिष्य को प्रक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। प्रजा ही मुद्रा या नायिका है। यह एक प्रकार से विवाह का ही व्यापार है। इसके बाद अभिषेक की क्रिया होती है। तदनन्तर साधक तथा मुद्रा दोनों का मण्डल में प्रवेश होता है तथा योग-क्रियाका अनुष्ठान होता है। इस समय अांतर तथा बाह्य विक्षेप दूर करने के लिए समन्त्रक क्रिया की जाती है । इसके बाद बोधि- चित्त का उत्पाद श्रावश्यक होता है । प्रज्ञा तथा उपाय के योग से, अर्थात् साधक तथा मुद्रा के संबन्ध से बोधिचित्त का उद्भव होता है। इस उत्पन्न बोधिचित्त को निर्माणचक्र में, अर्थात नाभिप्रदेश में धारण करना पड़ता है। ५६ क्रिया अत्यन्त कठिन है, क्योकि स्खलन होने पर योग भ्रष्ट होने की संभावना है और नरक-गति निश्चित है । नाभि में इस बिन्दु को स्थिर न कर सकने से सदसदात्मक दन्द का बन्धन अनिवार्य है। मन की चंचलता तथा प्राय की चंचलता बिन्दु की चंचलता के अधीन है। चंचल बिन्दु ही संवृति बोधिचित्त है। बिन्दु स्थिर हो जाने पर उसकी अर्धगात हो सकती है, अन्त में उम्पीय-कमल में, अर्थात् सहस्रदल कमल में