पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तदशध्याय ५.३ न अभाव भाव ही है। मायादि में भावाभाव के विशेष का विधान है । प्राकृति-भाव है, वह हस्तित्वादि का अभाव है । जो हस्तित्वादि का अभाव है, वहीं प्राकृति-भाव है । ( १९२०) अतः द्वयाभासता है, द्वयभाव नहीं है । इसीलिए, रूपादि में जो अभूत-परिकल्प-स्वभाव है, अस्तित्व-नास्तित्व का विधान है (११।२१ )। रूपादि में भाव प्रभाव नहीं है। यह भावाभाव का विशेष है ( १११२२) । भाव अभाव नहीं है, क्योंकि द्वयाभासता है । अभाव भाव नहीं है, क्योंकि द्वयता की नास्तिता है। जो द्वयाभासता का भाव है, वहीं द्वय का अभाव है। यहाँ प्रसंग फिर नागार्जुन के साथ हो जाते हैं। नागार्जुन के सदृश वह भाव और अभाव इन दोनों अन्तों का प्रतियेच करते हैं। एक समारोप का अन्त है; दूसरा अपवाद का अन्त है। श्रथवा यों कहिए कि श्रसंग दिखाते हैं कि भाव और अभाव का ऐकान्तिकत्व और अविशेष है ( ११४२३)। किन्तु असंग साथ ही साथ अपने को अद्वयवादी और विज्ञानवादी बताते हैं । यहाँ वह नागार्जुन से पृथक् हो जाते हैं । यह कहते हैं :--द्वय नहीं है; द्वय की उपलब्धिगर दोती है। मायाहस्ति की श्राकृति के ग्राह में जो भ्रान्ति होती है, उसके कारण द्वय की प्रतीति होती है । वस्तुतः न ग्राहक है, न ग्राह्य । केवल द्वय की उपलब्धि है (११।२६ )। सब धर्म, भाव और प्रभाव मावोपम है। वे सत् है, क्योंकि अभूतपरिकल्पस्वेन उनका तथाभाव है । वे असन् हैं, क्योंकि ब्राह्यप्राहकत्वेन उनका अभाव है। पुनः क्योंकि भाव-प्रभाव का अविशेष है, और वह सत् भी है, असत् भी है, इसलिए वह मायोपम हैं ( १९॥२७)। मृत्युपस्थानादि जिन प्रातिपदिक धर्मों का बुद्ध ने उपदेश दिया है, यह भी अलक्षण और माया है । जब बोधि की विजय संसार पर होता है, तो यह एक मायाराज का दूसर मायाराज से पराजय है ( ११।२६)। सांकाशक धमा का व्यावदानक धना से पराजय एक मायाराज की दूसरे मायाराब पर विजय है । सब धर्म वस्तुतः मायोपम है। माया, स्वप्न, मरीचिका, बिम्ब, प्रतिभास, प्रतिश्रुति, उदकचन्द्रबिम्प और निर्माण के तुल्स सब धम बार संस्कार हैं। श्रात्मा-बाबाद असा हैं । तथापि आध्यात्मिक धमाका तथाप्रख्यान होता है। बाह्य धर्म मा अस। है । बाह्य आयतन स्वप्नोपम है, क्योंकि उनका उपभोग अवस्तुक है। चित्त-चैतासक मा मराचिका के तुल्य हैं क्योंकि वह भ्रान्तिकर है ( ११६३०)। इस श्रद्वयवाद तल में हम सदा प्रतीत्यसमुत्पाद को अनादि तन्त्री पायेंगे, और अनित्यता और शून्यता इसके पृट में है। आध्यात्मिक आयतन प्रतिबिम्बोपम है, क्योंकि यह पूर्व कर्म के प्रतिबिम्ब हैं। पुद्गल केवल कर्मकृत है । इसा प्रकार बाह्य आयतन प्रोतभासोपम है। यह आध्यात्मिक पायतनों की छाया है, क्याकि उनका उत्पत्ति प्राध्यामा आयतनों के श्राधिपत्य से होती है। इसी प्रकार समाधि-संनिश्रित धर्म उदकचन्द्रबिम्बवत् है । बोधिसत्व के विविध जन्म ( जातक) निर्माणोपम है। देशना धर्म प्रतिश्रुति के सदृश है ( ११॥३०)।