पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९४

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बौद-धर्म-दान है और इस प्रकार वह बोधिसत्वों की सामीची' में प्रतिपन्न हो जाता है। उसको शेयावरण और क्लेशावरण को अपगत करना है। शेयावरण का ज्ञान भावना से होता है, और क्लेश- निःसरण लेश से होता है। भगवान् कहते है कि मैं राग का निःसरण राग से अन्यत्र नहीं बताता, इसी प्रकार द्वेष का और मोह का नि:सरण द्वेष और मोह से अन्यत्र नहीं बताता। धर्मधातु से विनिर्मुक्त कोई धर्म नहीं है, क्योंकि धर्मता से व्यतिरिक्त धर्म का प्रभाव है । अतः रागादिधर्मता रागादि श्राख्या का लाभ करती है, और वही रागादि का निःसरण है (१२११) । धर्मधातु में क्लेश रागस्वभाव का परित्याग कर धर्मता हो जाता है, और उसका श्राख्यान नहीं होता । रागादि के परिजात होने पर वही उनके निःसरण है। इसी अर्थ में अविद्या और बोधि भी एक हैं। उपचार से अविद्या बोधि की धर्मता है ( १३१२)। धर्म का अभाव और उपलब्धि, निःसलश और विशुद्धि भी मायासदृश हैं। वस्तुतः चित्त तथता ही है। जैसे विधिवत् विचित्रित चित्र में नत-उन्नत नहीं है, किन्तु द्वय दिखलाई पड़ता है; उसी तरह अतकल्म में भी द्वय नहीं है, किन्तु द्वय दिखलाई पड़ता है । जैसे जल तुब्ध होकर प्रसादित हो जाता है, उसकी अच्छता अन्यत्र से नहीं श्राती, उसी प्रकार यह मल का अपकर्षमात्र है। चित्त की विशुद्धि इसी प्रकार होती है। चित्त प्रकृतिप्रभाश्वर है, किन्तु अागन्तुक दोष से दूषित होता है । धर्मता-चित्त से अन्यत्र दूसरा चित्त नहीं है, जो प्रकृति- प्रभास्वर हो ( १३११६-१६)। इस प्रकार बुद्धत्व या निर्माण चित्त में है । अत: अमंग का वाद विज्ञानवादी अद्वयवाद है । धर्मधातु की प्रकृति परिशुद्धि से मू ड़ों को त्रास होता है । असंग श्राकाश और जल का दृष्टान्त देकर इस त्रास का. प्रतिषेध करते हैं। वह कहते है कि चित्त श्राकाशतोयवत् प्रकृत्या विशुद्ध है। यह तयता से अन्य नहीं है । इस उपोद्घात के साथ असंग बोधिसत्र की सत्वों के प्रति मैत्री और करुणा का वर्णन करते हैं । बोधिसत्व का सल्यों के प्रति प्रेम मजागत होता है। वह सत्वों से वैसे हो प्रेम करते हैं, जैसे कोई अपने एकमात्र पुत्र से करता है। वह सदा सत्यों का हित साधित करते है । जैसे कपोती अपने बच्चों को प्यार करती है, और उनका उपगूहन करती है, उसी प्रकार यह फारुणिक सत्वों को पुत्रवत् देखता है ( १३।२०-२२)। बोधिधयों का क्रम व स्वरूप चौदहवे अधिकार में अववाद-अनुशासनी' विभाग है । इसमें असंग बताते है कि प्रति- पत्ति के पश्चात् बोधिसत्व की चर्या क्या है। सिलवां लेबी भूमिका में इस अधिकार का संक्षेप 1. 'सामाधि' 'अनुम्छविक धम्म' है, यथा पावप्रक्षालन, चीवरदान, चैत्यवंदना इत्यादि । प्रातिमोक्ष के अनुसार 'सामीधि' भनुपम्मता' है। बोकोपर धर्म के अनुरूप अपवाद और अनुशासनी सामीचिधर्मता है। १. अवधार-विधि-विषेध मनुशासनी - देशना ।