पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९६

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Wor प्रहातव्य केशों से विमुक्त देखता है, तब यह दर्शनमार्ग कहलाता है ( १४६२-३३)। यहां एक विचित्र वाक्य है :-जब वह अभावशून्यता, तयाभाव की शून्यता और प्रकृति- सत्यता, इस त्रिविषशून्यता का गान प्राप्त करता है, तब वह शून्या कहलाता है ( १४॥३४)। त्रिविष सम्मका-इस श्लोक की टीका में कहा है:-बोधिसत्व को त्रिविध शून्यता का शान होता है । अभावशून्यता परिकल्पित खभाव है, क्योंकि स्वलक्षण का प्रभाव है । तथा. भाव की शून्यता परतन्त्रस्वभाव है, क्योंकि इसका भाव वैसा नहीं है, जैसा कल्पित होता है। प्रकृतिशत्यता परिनिष्पन्न-स्वभाव है, क्योंकि इसका स्वभाव-शून्यता का है। हम देखते हैं कि नागार्जुन की शून्यता का विज्ञानवादी श्रदयवाद से क्या सूक्ष्म संबन्ध है, और हम यह भी देखते कि किस कुशलता के साथ विज्ञानवादी नागार्जुन से व्यावृत्त होते हैं। क्योंकि माध्यमिकों की शत्यता से ऐकमत्य प्रकट कर असंग कहते हैं कि यह जानकर कि जगत् संस्कारमात्र और निरात्मक है, और निरर्थिका प्रात्मदृष्टि का त्याग कर बोधिसत्व महात्मदृष्टि का लाभ करते है, विसका महान् अर्थ है, इस महात्मदृष्टि में सब सत्वों के साथ आत्मसमचित्त का लाभ होता है । इस अद्वयवाद से करुया प्रवृत्त होती है। बोधिसत्वों का सखों के प्रति जो प्रेम होता है, उनकी वो वत्सलता होती है, वह परम आश्चर्य है । श्रथवा आश्चर्य का विषय नहीं है, क्योंकि उसके लिए सत्व आत्मसमान है(१४४१)। संस्कारमात्र अगदेत्य बुद्धया निरात्मकं दुःखविरूढिमात्रम् । विहाय यानर्थमयात्मदृष्टिः महामदृष्टिं भयते महार्याम् ।। [१४॥३७ ] [टीका-~महात्मदृष्टिरिति महार्थी या सर्वसत्वेष्वात्मसमचित्तलाभात्मदृष्टिः । सा हि सर्व- सत्यार्थक्रियाहेतुत्वान्महा । विनात्मदृष्ट्या अनर्थमयी आत्मदृष्टिमहार्था या विनापि दुःखेन स्वसन्तानजेन सुदुःखिता सर्वसत्वंसन्तानजेन 11 यह महात्मदृष्टि उपनिषदों की परमात्मदृष्टि के कितने समीप है।--तुम्हारी आत्मा को सब आत्माओं में गूढ है। असंग कहते है कि महात्मदृष्टि श्रात्मदृष्टि है, क्योंकि इसमें सब सत्वों में श्रात्मसमचित का लाभ होता है। वह स्वसन्तानब दुःखों के बिना भी सब सत्वों के दुख से दुःखित होता है। आज से बोधिसल का धातु श्राकाशवत् अनन्त है। सब सल्व श्रात्मतुल्य हो जाते है। यह सखों के दुःख का अन्त करने के लिए सचेष्ट होता है। वह उनके हित-सुख की कामना करता है, और उसके लिए प्रयोग करता है। यह वधोपम-समाधि है। विकल्प इसका भेद नहीं कर सकते । यह सर्वाकारसता और अनुत्तर-पद भी है । वह जगत् में सूर्य के सहय मासित होता है, और अन्धकार का नाश करता है। पारमिताओं की सिद्धि-प्रतिष्ठा कायवाञ्चित्तमय कर्म है। बोधिसत्व कर्म को विश्व करता है। उसके कर्म में कर्ता, कर्म या क्रिया का विकल्प नहीं है । इस प्रकार कर्म को शोष कर वह कर्म को अक्षय कर देता है, और पारमिताओं को सिद्धि करता है।