पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९८

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चौदपर्म-दर्शन पुना असंग इस प्रकरण में क्षणिकवाद की परीक्षा करते हैं। हम सौत्रातिकवाद ने अध्याय में इसका वर्णन कर चुके हैं। पुद्गल-मेरालय अन्ततः पुद्गल का भी नैरात्म्य है । यह द्रव्यत: नहीं है, केवल प्रशमिता है। इसकी रूपादिवत् द्रव्यतः उपलब्धि नहीं होती। किन्तु भावान् ने कहा है कि इस लोक में प्रात्मा की उपलब्धि होती है, श्रात्मा की प्राप्ति होती है। फिर कैसे कहते हैं कि इसकी उपलब्धि नहीं होती ? किन्तु इस प्रकार उपलभ्यमान होने पर वह द्रव्यतः उपलब्ध नहीं होता। किस कारण से १ क्योंकि यह विपर्यास है। भगवान् ने कहा है कि अनात्म में आत्म का विपर्यास होता है । इसलिए पुद्गल-ग्राह विपर्यास है। इसकी सिद्धि कैसे होती है १ संजेश से । इस संक्लेश का लक्षण सत्कायदृष्टि है, जिसमें अहंकार-ममकार होता है। किन्तु विपर्यास सक्लेश है। कैसे मालूम हो कि यह संकेश है ? क्योंकि हेतु क्लिष्ट है । वस्तुतः तद्हेतुक रागादि क्लिष्ट उत्पन्न होते हैं। किन्तु जिस रूपादिसंज्ञक वस्तु में पुद्गल प्राप्त होता है, वह उस पुद्गल का ए.कत्व है या अन्यत्व १ वह उत्तर देता है कि एकाव या अन्यत्व दोनों अवतव्य हैं, क्योंकि दो दोप हैं । एकत्व में स्कन्धों के अात्मत्त का प्रसंग होता है। अन्यत्व में पुद्गल के द्रव्यत्व का प्रसंग होता है । यदि इसका एकत्र है, तो इससे यह परिणाम निकलता है कि स्कन्धों का आत्मत्व है, और पुद्गल द्रव्यसत् है। यदि अन्यत्व है तो पुद्गल द्रव्यसत् है । इस प्रकार यह युक्त है कि पुद्गल अवक्तव्य है, क्योंकि यह प्रजसिसत् है । अतः यह अव्याकृत वस्तुओं में से है। पुनः जो शास्ता के शासन का अतिकम कर पुद्गल का द्रव्यतः अस्तित्व चाहते हैं, उनसे कहना चाहिये कि यदि यह द्रव्यसत् है, और अवाच्य भी है, तो प्रयोजन कहना चाहिये किस कारण से १ यदि यह नहीं कहा जा सकता कि इसका एकत्ल है या अन्यत्व तो यह निष्प्रयोजन है । किन्तु कदाचित् कोई केवल दृष्टान्त द्वारा पुद्गल के अवक्तव्यल्ब को सिद्ध करना चाहे तो वह कहेंगे कि पुद्गल अग्नितुल्य है, और जिस प्रकार अग्नि इन्धन से न अन्य है, न अनन्य; उसी प्रकार पुद्गल अक्क्तव्य है। उनसे कहना चाहिये कि लक्षण से, लोकदृष्टि से तथा शास्त्र से इन्धन और अग्नि का श्रवक्तव्यत्व युक्त नहीं है, क्योंकि द्वयरूप में उपलब्धि होती है । पुनः अग्नि तेनोधातु है, और इन्धन शेषभूत है। उनके लक्षण मिन है। श्रतएव अग्नि इन्धन से अन्य है । लोक में भी अग्नि के बिना काष्ठादि इन्धन देखा चाता है, और इन्धन के बिना अग्नि देखी जाती है। इसलिए, इनका अन्यत्व सिद्ध है, और शास्त्र में भगवान् ने कभी अग्नि-इन्धन का अवतच्यत्व नहीं बताया है । किन्तु यह कहा जायगा कि श्राप कैसे जानते हैं कि इन्धन के बिना अनि होती है ? उपलब्धि से, क्योंकि इस प्रकार वायु से विक्षिप्त ज्वलन दूर भी जाता है। किन्तु यह अापत्ति होगी कि यहाँ वायु इन्धन है । अतएव अग्नि-इन्धन का अन्यत्व सिद्ध होता है। कैसे ? क्योंकि यरूप में उपलब्धि है। यहाँ दो उपलब्धियाँ हैं : अर्चि और वायु इन्धन के रूप में । किन्तु पुद्गल है,क्योंकि यही द्रष्टा, विशाता, कर्ता, भोक्ता, जाता, मन्ता है। नहीं; क्योंकि इस अवस्था में वह दर्शनादि-