पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४९९

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संसदमध्याय ४११ संशक विज्ञानों का प्रत्ययभार से या स्वामिमात्र से कर्ता होगा। किन्तु यदि दो के प्रत्ययवश विज्ञान संभव है, तो यह प्रत्यय नहीं है । क्यों ? यह निरर्थक होगा, क्योंकि उसका कुछ भी सामर्थ्य नहीं देखा जाता। यदि विज्ञान की प्रवृत्ति में यह स्वामी होता तो अनित्य का प्रवर्तन न होता, क्योंकि अनित्य उसको अनिष्ट है । अतः यह युक्त नहीं है कि यह द्रष्टा, विज्ञान, कर्ता, भोका, है। पुद्गल नैरारम्प के प्रभाव में दोष-पुनः यदि पुद्गल द्रव्यतः है, तो उसके कर्म की उपलब्धि होनी चाहिये; जैसे चक्षुरादि के दर्शनादि कर्म की उपलब्धि होती है । किन्तु पुद्गल के संबन्ध में ऐसा नहीं है, अत: वह द्रव्यतः नहीं है । यदि उसका द्रव्यत्व इष्ट है, तो भगवान् बुद्ध के संबोध को तीन प्रकार से बाधा पहुँचता है। अभिसंबोध गंभीर, असाधारण और लोकोत्तर है। किन्तु पुद्गल के अभिसंबोध में कुछ गंभीर नहीं है, कुछ असाधारण नहीं है। यह पुद्गल-ग्राह सर्वलोकगम्य है; वीथिक इसम अभिनिविष्ट है; यह लोकोन्चित है । पुनः यदि पुद्गल द्रष्टा श्रादि होता तो दर्शनादि कृत्य में वह सप्रयत्न होता या निष्प्रयत्न होता । यदि वह सप्रयत्न होता तो उसका प्रयत्न स्वयंभ होता या अाकस्मिक होता या तत्प्रत्ययत्व कोन : यह यत्न स्वयंभू नहीं है, क्योंकि इसमें तान दोर है। इनका उल्लेख आगे करेंगे। यनप्रत्ययत्व भी नहीं है। अथवा यदि वह निष्प्रयत्न होता तो दर्शनादिक स्वतः सिद्ध होते । और जब पुद्गल का व्यापार नहीं है, तो पुद्गल द्रष्टादि कैसे होता है। तीन दोष यह हैं:--अकर्तृत्व, अनित्यत्व, युगपत् और नित्य प्रवृत्ति । यदि दर्शनादिक में प्रयत्न शाकस्मिक है, तो दर्शनादिक का पुद्गल कता नहीं है । वह द्रष्टा श्रादि कैसे होगा ! अथवा यदि प्रयत्न को यास्मिक माने तो निरपेक्ष होने से ऐसा कभी न होगा कि प्रयन न हो पार यह नित्य न होगा । यदि प्रयत नित्य होता तो दर्शनादिक की प्रवृत्ति नित्य अोर युगपन होता । इन तान दोषों के कारण प्रयत्न स्वयंभ नहीं है । प्रत्ययन भी युक्त नहीं है। यदि पुद्गल तथा स्थित है, तो उसका प्रत्ययत्व युक्त नहीं है, क्योंकि प्राक् अभाव है । यदि तत्प्रत्यय है तो ऐसा कभी न होगा कि पुद्गल न हो । क्यों ? क्योंकि जब उत्पन्न नहीं है, प्राक प्रयत्न न होगा। और यदि पुद्गल विनष्ट होता है, तब भी उसका प्रत्ययत्न युक्त नहीं है, क्योंकि पुद्गल के अनित्यत्व का प्रसंग होगा। कोई तीसरा पक्ष नहीं है । अतएव तत्प्रत्यय प्रयत्न भी युक्त नहीं है। इस युक्ति का अाश्रय लेकर पुद्गल की उपलब्धि द्रव्यता नहीं होता। पुगन की प्रशसिसचा--याप पुद्गल द्रव्यतः नहीं है, तथापि यह प्रज्ञप्तिसत् है । भगवान् ने भी कहीं कहीं कहा है कि पुद्गल है, जैसे भारहारसूत्र में। श्रद्धानुसारी आदि पुद्गल की व्यवस्था भी है। इनमें दोष नहीं है। पुद्गल-प्रज्ञप्ति के बिना वृत्तिभद और सन्तानभेद की देशना शक्य नहीं है। उदाहरण के लिए भारहारसूत्र में भार और भारादान को संक्लेश कहा है और भारनिक्षेपण को व्यवदान । यह बताने के लिए, कि इनका वृत्ति और सन्तान में भेद है, भारहार पुद्गल को प्रज्ञा करना पड़ता है। इसके बिना देराना संभव