पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५०१

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ससदशमच्याय को मुदिता कहते हैं, क्योंकि अासन्न बोधि और सत्ता के अर्थसाधन को देखकर योगी में तीव मोद उत्पन्न होता है। तृतीय भूमि विमला है । इस भूमि में योगी समाहित होता है। यह अधिचित्त शिक्षा है । उसको अच्युत ध्यानसमाधि का लाभ होता है। इसे विमला कहते हैं, क्योंकि योगी दौःशील्प, मल और श्राभोगमल ( अन्ययानमनसिकारमल) का अतिक्रम करता है। चतुर्थ, पञ्चम और पष्ठ भूमियों में अधिप्रज्ञ शिक्षा होती है। चतुर्थ भूमि प्रभाकरी है । इसमें बोधिपक्ष संगृहीत प्रज्ञा की भावना होती है। योगी बोधिपक्ष में विहार करता हुआ भी बोधिपक्षों की परिणामना संसार में करता है। इस भूमि में समाधि-बल से अप्रमाण धर्मों का पर्येषण होने से महान् धर्मावभास होता है। इसीलिए इसे प्रभाकरी कहते हैं। पाँचवीं भूमि अमिती है । इसमें बोधिपक्षामिका प्रज्ञा का बाहुल्य होता है । इस प्रशा की पांचवी और छठी भूमियों में दो गोचर होते हैं। धर्मतत्त्व और दुःखादिसत्यचतुष्टय । पाँचवीं भूमि में योगी चार अार्यरत्यों में विहार करता है, और मत्वों के परिपाक के लिए नाना शास्त्र और शिल्प का प्रययन करता है । पांचवीं भमि में प्रशाद्वय अर्थात् क्लंशावरण और शेयावरण का दहन करने के लिए प्रत्युपस्थित होता है। अत: इस भूमि में प्रज्ञा अर्चि का काम देती है । इसीलिए यह भूमि अष्मिती है। छठी भमि दुर्जया है । इसमें योगी प्रती समुत्पाद का चिन्तन करता है, और अपने चित्त की रक्षा करता है। सत्या के परिपाक में अभियुक्त होते हुए भी वह सक्लिष्ट नहीं होता । यह कार्य अतिदुष्कर है । इसलिए इस भूमि को दुजया कहते हैं । इसके अनन्तर भावना के चार फल चार भूमियां म समाश्रित है। प्रथम फल अनिमित्त ससंस्कारविहार है । यह सातवी भूमि है। इसे अभिमुखा कहत है, क्योंकि प्रज्ञापारमिता के आभय से यह निर्वाण और संसार को अप्रतिष्ठा के कारण संसार और निर्माण के अभिमुख है। आठवीं भूमि दूरंगमा है । द्वितीय फल इस पर आश्रित है। अनिमित्त अनभिसंस्कार विहार द्वितीय फल है । यह भूमि प्रयोग पर्यन्त जाति है । अतः दूरंगमा है । नवीं भूमि अचला है। इस पर तृतीय फल अगश्रत है। इसमें प्रतिसविशित्व का लाभ होता है। इसमें सत्वों के परिपाचन का सामर्थ्य होता है । निमित्तसंज्ञा और अनिमित्ता- भोगसंशा से अविचलित होने के कारण यह अचला है । दशवी भूमि साधुमती है। इस पर चतुर्थ फल आश्रित है। इसमें समाधि और धारणी की विशुद्धता होती है। प्रतिसविमति की प्रधानता ( साधुता) से यह साधुमती है। अन्तिम बुद्धभूमि है, जहाँ बोधि की विशुद्धता होती है । यह धर्ममेघा है । यह समाधि और धारयी से व्याप्त है। जैसे श्राकाश मेष से व्याप्त होता है, और मेघ का श्राश्रय होता