पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५०३

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अष्टादश अध्याय वसुबन्धु का विज्ञानवाद (१) [विशतिका के आधार पर ] विंशतिका के रचयिता वसुबन्धु हैं। हमने पहले कहा है कि यह प्रारंभ में सौत्रान्तिक थे। पीछे से अपने ज्येष्ठ भ्राता असंग के प्रभाव से विज्ञानवादी हो गये। परमार्थ के अनुसार अयोध्या के किसी संघाराम में उन्होंने महायान धर्म स्वीकार किया था। वसुबन्धु का प्रसिद्ध ग्रन्थ वैमापिक-नय पर है, किन्तु महायान धर्म स्वीकार करने के पश्चात् उन्होंने विज्ञान- वाद पर कई ग्रन्थ लिखे। हम इस अध्याय में विस्तार से वसुबन्धु के विज्ञानवाद का परिचय कराएंगे । वसुबन्धु के ग्रन्थों में से एक छोटा ग्रन्थ 'विंशतिका' है । इसपर वसुबन्धु ने स्वयं ही भाध्य भी लिखा है। यह ग्रन्थ विज्ञानवाद को संक्षेप में जानने के लिए बड़ा ही उपयुक्त है । इसलिए पहले इसका संक्षेप देते हैं। बाद में विंशिका तथा उसकी टीका सिदि के श्राधार पर वसुबन्धु के विज्ञानवाद का विस्तार देंगे । विशतिका' को सिल्वा लेवी ने मूल रूप में १९२५ में वसुबन्धु की वृत्ति साथ के प्रकाशित किया और पुसे ने मुइजेत्रों में सन् १६१२ में (पृ०५३-६० ) इसके तिव्यती अनुवाद का फ्रेंच भाषान्तर दिया था। लेवी ने १६३२ में इसका फ्रेंच अनुवाद स्वयं प्रकाशित किया । बाहार्य का प्रतिषेध विशतिका के प्रारंभ में ही कहा है कि महायान में वैधातुक को विवप्तिमात्र व्यवस्था- पित किया है । यह इम सूत्र के अनुसार है -"चित्तमात्र भो जिनपुत्रा यदुत धातुकम् ।" चित्त, मन, विज्ञान और विज्ञप्ति पर्याय है। यहाँ 'चित्तः से संप्रयुक्त चैच सहित चित्त अभिप्रेत है। इससे बायार्थ का प्रतिषेध होता है। रूपादि अर्थ के बिना ही रूपादि-विज्ञप्ति उत्पन्न होती है । यह विज्ञान ही है, जो अर्थ के रूप में अवभासित होता है । वस्तुतः अर्थ असत् है । यह वैसे ही है, जैसे तिमिर का रोगी असत्-कल्प केश-चन्द्रादि का दर्शन करता है। अर्थ की सत्ता नहीं है। प्रश्न है कि यदि अर्थ असत् है तो उसकी विज्ञप्ति का उत्पाद कैसे होता है। यदि रूपादि अर्थ से रूपादि विशप्ति उत्पन्न नहीं होती और रूपादि अर्थ के बिना ही होती है, तो देश-काल का नियम और सन्तान का अनियम युक्त न होगा। उदाहरण के लिए यदि रूप-