पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५०४

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विज्ञप्ति रूपार्थ के बिना उत्पन्न होती है, तो ऐसा क्यों है कि वह विज्ञप्ति किसी एक ही देश में उत्पन्न होती है, सर्वत्र नहीं; और उस देश में भी कदाचित् उत्पन्न होती है, सर्वदा नहीं। ऐसा मी क्यों है कि उस देश और काल में प्रतिष्ठित सर्व की सन्तान में यह विज्ञप्ति अस्पन्न होती है, केवल एक सन्तान में नहीं । यदि आप तैमिरिक द्वारा देखे हुए केशादि का दृष्टान्त देते है, तो हम पूछते हैं कि यह केशादि आभास तैमिरिक की ही सन्तान में क्यों होता है; दूसरों की सन्तान में क्यों नहीं होता है यदि आप स्वप्न में देखे हुए अर्थों का दृष्टान्त दें तो हमारा प्रश्न होगा कि इनसे इन अर्थों की क्रिया स्यों नहीं होती? हम स्वप्न में जो अन्न या विष का ग्रहण करते है, उसकी अनादि क्रिया क्यों नहीं होती १ गन्धर्वनगर नगर की क्रिया को संपन्न नहीं करता, क्योंकि वहाँ सत्व निवास नहीं करते। समासतः यदि अर्थ का अभाव है, यदि विशतिमात्र ही है, तो देश-काल का नियम, सन्तान का अनियम और कृत्य-क्रिया युक नहीं है। विज्ञानवाद में देशाविका नियम और सन्तान का अनियम-वसुबन्धु इस शंका का निराकरण इस प्रकार करते हैं: :-बाह्य अर्थ के बिना भी देशादि नियम सिद्ध है। स्वप्न में अर्थ के बिना ही किसी देश-विशेष में, मर्वत्र नहीं, भ्रमर, आराम, स्त्री-पुरुषादिक देखे जाते है, और उस देश-विशेष में भी कदाचित् देखे जाते हैं, सर्वदा नहीं। अतः यह सिद्ध हुश्रा कि अर्थ के अभाव में भी देश-काल का नियम होता है । पुनः प्रेतयत् सन्तान का अनियम सिद्ध है। सब प्रेतों को पूयपूर्ण अथवा मूत्र-पुरीप-पूर्ण नदी का दर्शन होता है । केवल एक को ही नहीं, यद्यपि उस देश में ऐसा कोई अर्थ नहीं है । पुनः यह दण्ड और खड्ग को धारण करने वाले पुरुषों से घिरे होते है, यद्यपि यह पुरुष विकल्पमात्र है । पुना यह अयथार्थ है कि स्वप्न में जो दर्शन होता है, उसकी कृत्य-क्रिया नहीं होती । हम जानते हैं कि स्वप्न में दूर- समापत्ति के बिना भी शुक्र का विसर्ग होता है। पुना नरक में सब नारकों को, केवल एक को नहीं, देश-काल नियम से नरकपालादि का दर्शन होता है, और वह उनको पीड़ा पहुंचाते हैं, यद्यपि यह असत्-कल्प हैं । नरक-पाल सत्व नहीं है, क्योंकि ऐसा अयुक्त होगा। यह नारक भी नहीं है, क्योंकि यह नारक दुःख का प्रतिसंवेदन नहीं करता । प्रदीप्त अयोमयी भूमि के वाह-दुःख को स्वयं सहन न कर सकते हुए, यह कैसे दूसरों को यातना पहुंचा सकते हैं ! और नरक में अनारकों की उत्पत्ति मी कैसे युक्त है। यदि स्वर्ग में तिर्यक् की उत्पत्ति होती है, तो वह वहाँ के सुख का भी अनुभव करते हैं, किन्तु नरकपालादि नारक दुःख का संवेदन नहीं करते। अत: नरक में तिर्यक् अथवा प्रेतों की उत्पत्ति युक्त नहीं है। वस्तुता नरकपालादि की सजा का प्रतिलाम करने वाले भूतविशेष नारकों के कर्म से संभूत होते हैं, और इस प्रकार इनका परिणाम होता है कि नारकों में मय पैदा करने के लिए यह विविध हस्तविपादि क्रिया करते देखे जाते हैं। नरकपालादि की उत्पत्ति में यह हेतु सर्वास्तिवाद के आगम में दिया गया है [अभिधर्मकोश, १५१]। इसी प्रकार भूतों की कल्पना क्यों की जाती है, और यह क्यों नहीं इष्ट है कि बीवों के कर्मक्श