पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५०७

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प्रहावर सध्यान ५१६ कैसे होगा? सूर्योदय पर कैसे अन्यत्र छाया होती है, और अन्यत्र अातप . उसका अन्य प्रदेश नहीं होता जहाँ अाता नहीं होता। यदि दिगमागभेद इष्ट नहीं है, तो दूसरे परमाणु से एक परमाणु का प्रावरण कैसे होता है ? परमाणु का कोई पर भाग नहीं है, जहाँ आगमन से दूसरे का दूसरे से प्रतिघात हो, और यदि प्रतिघात नहीं है, तो सब परमाणुओं का समान- देशल होगा और सर्वसंघात परमाणुमात्र हो बायगा। यही पिण्डों के लिए है। पिण्ड या तो परमाणुओं से अन्य नहीं हैं, अथवा अन्य है। यदि पिण्ड परमाणुगों से अन्य इष्ट नहीं है, तो यह सिद्ध होता है कि वह पिण्ड के नहीं हैं। यह सैनिवेश परिकल्प है । यदि परमाणु संघात है, तो इस चिन्ता से क्या, यदि रूपादि लक्षण का प्रतिषेध नहीं होता। अत: रूपादि लक्षण अनेक ( बहु) नहीं हो सकता। जब परमाणु प्रसिद्ध हुआ तब उसके साथ साथ द्रव्यों का अनेकन्च भी दूषित हो गया। किन्तु रूप को हम एक द्रव्य भी संप्रधारित नहीं कर सकते। क्योकि यदि चक्षु का निषय एक द्रव्य कल्पित हो तो उसकी अविच्छिन्न उपलब्धि प्रत्यक्ष होगी, किन्तु अनुभव ऐसा नहीं बताता | पुनः यह विकल्प केवल युक्ति की परिसमाप्ति के लिए था। जब पृथग्भूत परमाणु असिद्ध है, तब संघात परमाणु असिद्ध हो जाता है, और सकृत् रूपादि का चतुरादि विषयत्व भी प्रसिद्ध हो जाता है। केवल विज्ञसिमात्र सिद्ध होता है। वैभाषिक पापों का निराकरण-प्रतिपक्षी एक दुसरा आक्षेप करते हैं । वह कहते है कि प्रमाण द्वारा अस्तित-नास्तित्व निर्धारित होता है, और प्रमाणों में प्रत्यक्ष प्रमाण गरिष्ठ है । वह पूछते हैं कि यदि अर्थ असत् है, तो प्रत्यक्ष बुद्धि क्यों होती है। यह प्रतिपक्षी वैभारिक हैं । वसुबन्धु गूछते हैं कि आप क्षणिकवादियों को कैसे विषय का प्रत्यक्षस्व इष्ट है, क्योंकि बब क्षणिक-विज्ञान उसको विषय बताता है, उसी क्षण में रूपरसादिक निरुद्ध हो गये होने हैं । "यह विषय मुझको प्रत्यक्ष है। ऐसो प्रत्यक्षबुद्धि जिस क्षण होती है, उसी क्षण में वह अर्थ नहीं देखा जाता, क्योंकि उस समय मनोविज्ञान द्वारा परिच्छेद और चतुर्विधान निरुद्ध हो चुके होते हैं। किन्तु यह कहा जायगा कि क्योंकि अमनुभूत का स्मरण मनोविज्ञान द्वारा नहीं होता, इस लिए अर्थ का अनुभव अवश्य होना चाहिये । वसुबन्धु उत्तर देते हैं कि अनुभूत अर्थ का स्मरण प्रसिद्ध है। हम कह चुके हैं कि किस प्रकार अर्थ के बिना ही अर्थाभास विशति का उसाद होता है, चतुर्विज्ञानादिक विज्ञप्ति हो अर्थ के रूप में प्राभासित होती है । इसी विशति से स्मृतिसंप्रयुक्त रूपादि वैकल्पिक मनोविशति उत्पन्न होती है । अतः स्मृति के उत्पाद से अर्था- नुभव नहीं सिद्ध होता। बहुधर्मवादी कहेंगे कि यदि जैसे स्वप्न में विज्ञप्ति का विषय अभूतार्थ होता है, बाग्रत अवस्था में भी वैसा ही हो तो उसका अभाष लोगों को स्वयं ही अवगत होना चाहिये । किन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए स्वप्न के तुल्य अर्थोपलब्धि निरर्थक नहीं है।