पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५०८

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बौद्धमार्गदर्शन वसुबन्धु कहते है कि यह सापक नहीं है, क्योंकि स्वप्न में दृग-विषय का वो अभाव होता है, उसको अप्रबुद्ध नहीं जानता। सोया झुना पुरुष स्वप्न में अभूत अर्थ को देखता है, किन्तु बक्तक वागता नहीं तबतक उसको यह अवगत नहीं होता कि अर्थ का प्रभाव था। इसी प्रकार वितध-विकल्प के अभ्यासवय वासना-निद्रा में सोया हुआ पुद्गल अभूत अर्थ को देखता हुआ यह नहीं जानता कि अर्थ का अभाव है। किन्तु जैसे स्वप्न से बागकर मनुष्य को अवगत होता है कि स्वप्न में मैंने जो कुछ देखा था वह अभूत, वितथ था, उसी प्रकार लोकोत्तर निर्विकल्प शन के लाम से जब पुद्गल प्रबुद्ध होता है, तब वह विषय के अभाव को यथावत् अक्मत करता है। यहाँ एक दूसरी शंका उपस्थित की जाती है यदि स्वसन्तान के परिणामविशेष से ही सत्वों में अर्थ-प्रतिभास-विराप्ति उत्पन्न होती है, अर्थविशेष से नहीं, तो यह कपन कि पाप-कल्याणमित्र के संपर्क से तथा सत्-असत् धर्म के श्रवण से विज्ञप्ति का नियम है, उस संपर्क तथा देशना के प्रभाव में कैसे सिद्ध होता है। श्रर्थ के प्रभाव में विज्ञप्ति-नियम स्सा है। वसुबन्धु उत्तर में कहते है कि सब सत्वों की अन्योन्य विज्ञप्तियों के आधिपत्य के कारण विज्ञप्ति-नियम परस्परता होता है। यहाँ 'सत्वा 'चित्त-सन्तान' अभिप्रेत है। एक सन्तान के विवप्ति-विशेष से सन्तानान्तर में विज्ञप्ति-विशेष का उत्पाद होता है, न कि अर्थ विशेष से। एक दूसरा प्रश्न यह है कि यदि जैसे स्वप्न में निरथिका विज्ञप्ति होती है, वैसे ही बापत अवस्था में भी हो तो कुशल-अकुशल का समुदाचार होने पर प्रायति में तुल्यफल क्यों नहीं होता। वसुबन्धु का उत्तर है कि इस असमानफल का कारण अर्थ-सद्भाव नहीं है, किन्तु इसका कारण यह है कि स्वम में चित्त मिद्ध से उपहत होता है। वसुबन्धु इसका पुना व्याख्यान करते है-पूर्वपक्ष का कहना है कि यदि यह सम विज्ञप्तिमात्र नहीं है, और किसी का काय-वाक् नहीं है, तो बधिक द्वारा वध होने पर उभ्रादि का मरण कैसे होता है, और यदि उप्रादि का मरण तत्कृत नहीं है, तो वधिक का प्राणातिपात के श्रवद्य से योग कैसे होता है ! वसुबन्धु इसका उत्तर यो देते है-मरण पर-विशति-विशेष-वश होता है । जैसे पिशाचादि के मन के वश में होने से स्मृति का लोप होता है, तथा अन्य विकार उत्पन होवे ६, उसी प्रकार पर-विशति-विशेष के आधिपत्य से जीवितेन्द्रिय का निरोध करने वाली कोई विक्रिया उत्पन्न होती है, जिससे सभागसन्तान का विच्छेद होता है, और जिसे ही भरण की प्राण्या प्राप्त होती है। अन्यथा भूषियों के कोप से दण्डकारण्य सत्वशन्य कैसे हुआ ? यदि यह कल्पना करो कि दण्डकारण्य के निवासी अमानुषों द्वारा उत्पादित हुए, न कि ऋषियों के मनःप्रदोष से, तो इस कर्म से भगवान की यह उक्ति कि मनोदण्ड काय-वारदण्ड से महावयतम है, कैसे सिद्ध होती है।