पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५१०

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1 पसुबन्धु का विज्ञान-वाद (२) [शुभारम्बांग की सिद्धि के आधार पर ] चीनी यात्री शुभान-ब्वांग ने भारत में ई. सन् ६३० से ६४४ तक यात्रा की थी यह नालंदा के संघाराम में कई बार रहे थे। वह शीलभद्र तथा विज्ञानवाद के अन्य प्राचार्यों के शिष्य थे। ईसवी सन् ६४५ में वह चीन लौटे और विज्ञानवाद पर उन्होंने कई मन्थों की रचना की । इनमें से सबसे मुख्य ग्रन्थ सिद्धि है। इसका प्र'च अनुवाद पूर्स ने किया है। इसी अन्य के आधार पर यहां विज्ञानवाद लिखा जाता है। सिदिका प्रतिपाय इस ग्रन्थ का महत्व इस दृष्टि से भी है कि यह नालंदा संघाराम के प्रायों के विचारों से परिचय कराता है। असंग के महायानसूत्रालंकार के विज्ञानवाद का अाधार माध्यमिक विचार था, और उस ग्रंथ में इस सिद्धांत का विरोध नहीं किया गया। इसके विपरीत सिद्धि के विज्ञानवाद का स्वतंत्र प्राधार है। यह माध्यमिक सिद्धान्त से सर्वथा व्यावृत्त हो गया है, और यह अपने को ही महायान का एकमात्र सञ्चा प्रतिनिधि मानता है। जैसा कि ग्रंथ का नाम सूचित करता है, "सिद्धि' विज्ञसि-मात्रता के सिद्धांत का निरूपण है । मो लोग पुद्गल-नैरात्म्य और धर्म-नैरात्म्य में अप्रतिपन या विप्रतिपन्न हैं, उनको इनका अविपरीत शान कराना इस ग्रंथ का उद्देश्य है । इन दो नैरात्म्यो के साक्षात्कार में आत्ममाह और धर्माह का नाश होता है, और इसके फलस्वरूप लेशावरण और शेयावरण (अक्रिष्ट अशान जो शेष अर्थात् भूतत्थता के दर्शन में प्रतिबन्ध है ) का प्रहाण होता है । रागादि क्रेश आत्मदृष्टि से प्रस्त होते हैं। पुद्गल नैरात्म्य का अवबोध सत्काय-दृष्टि का प्रतिपक्ष है। इस अवबोध से सर्व क्रश का प्रहाण होता है । क्लेश-प्रहाण से प्रतिसंधि नहीं होती, और मोक्ष का लाभ होता है। धर्मनैराल्म्य के गन से यावरण प्रहोण होता है, इससे महाबोधि (सर्वता) का अधिगम होता है और सर्वाकार रेय में ज्ञान असक्त और अप्रतिहत प्रवर्तित होता है। विचप्तिमात्रता दो प्रकार के एकांतवाद का प्रतिषेध करती है। सर्वास्तिवादी मानते हैं कि विज्ञान के तुल्य विशेय (बाह्यार्थ) भी द्रव्यसत् है, और दूसरे (भावविवेक) बो शून्यवादी है, मानते है कि विशेय (बाह्यार्थ) के सदृश विज्ञान का भी परमार्थतः अस्तित्व नहीं है, केवल संवृतितः है । यह दोनो मत अयथार्थ है। शुमान-च्चांग इन दोनों अयथार्थ मतवादों से व्यावृत्त होते हैं, और अपने विज्ञानवाद को सिद्ध करते हैं। वह वसुबन्धु के इस वचन को उद्धृत करते है :-जो विविध प्रात्मोपचार और धर्मोपचार प्रचलित है, यह मुख्य धर्मों से संबन्ध नहीं रखते । वह मिथ्योपचार है। विमान का जो परिणाम होता है उसके लिए, इन प्रवतियों का व्यवहार होता है। दूसरे शब्दों में श्रात्मा और धर्म द्रव्यसत् स्वभाव नहीं