पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५११

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महादश अध्याय १२३ है। वह केवल विकल्प मात्र है । परिकल्पित आत्मा और धर्म विज्ञान ( विज्ञप्ति, शान) के परिणाममात्र है। चित्त-चैत्त एकमात्र वस्तुसत् है । विज्ञान-परिणाम के विषिष मतवाद धर्मपाल, स्थिरमति, नन्द और बन्धुश्री के मत-शुबान-चांग इस विज्ञान-परिणाम का विवेचन विज्ञानवाद के अन्तर्गत विविध मतवादों के अनुसार करते है। धर्मपाल और स्थिरमति के अनुसार मूल-विज्ञान (विज्ञान-स्वभाव, संवित्ति, संवित्तिभाग) दो भागों में सदृश-परिणत होता है। यह प्रात्मा और धर्म है। इन्हें दर्शनभाग और निमित्तभाग कहते हैं। यही ग्राहक और ग्राह्य पायतन है। यह दो भाग संवित्तिभाग का आश्रय लेकर सुषम के दो शृंगों के तुल्य संभूत होते हैं । नन्द और बंधुश्री के अनुसार आध्यात्मिक विज्ञान बाज़ार्य के सदृश परिणत होता है। धर्मपाल के मत से यह दो भाग संवित्तिभाग के सहश प्रतीत्यन, परतंत्र है, किन्तु मूढ़ पुरुष इनमें श्रात्मा और धर्म का, ग्राहक-प्राय का, उपचार करते हैं । यह दो विकल्प ( कल्पना ) परिकल्पित है। किन्तु स्थिरमति के अनुसार यह दो माग पत्र नहीं है, क्योंकि विज्ञप्तिमात्रता का प्रतिषेध किये बिना इनकी वस्तुतः विद्यमानता नहीं होती। अतः यह परिकल्पित है । नन्द और बंधुभी केवल दो ही माग (दर्शन, निमित्त ) स्वीकार करते, हैं और यह दोनों परतंत्र हैं । निमित्तभाग परतंत्र है, किन्तु यह दर्शनभाग का परिणाम है । इस नय में विज्ञप्तिमात्रता का सिद्धान्त प्रारत है । निमित्तभाग विज्ञान से पृथक् नहीं है, किन्तु मिथ्या रुचि उसे बहिर्वत् गृहीत करती है । यद्यपि यह परतंत्र है, तथापि परिकल्पित के सदृश है । लोक और शास्त्र वाह्यार्थ सदृश इस निमित्तभाग को प्रात्मा और धर्म प्राप्त करते हैं । दर्शनभाग ग्राहक के रूप में निमित्तभाग में संगृहीत है। इस प्रकार स्थिरमति एक ही भाग को परतंत्र मानते हैं। उनके दर्शनभाग और निमित्तभाग परिकल्पित है | धर्मपाल, जैसा हम अागे देखेंगे, चार भाग मानते हैं। वह एक स्वसंवित्ति-संवित्तिभाग भी मानते हैं । उनके चारों भाग परतंत्र है, नन्द और बंधुश्री के अनुसार दो भाग है और दोनों परतंत्र है। शुमायांग का समन्वय-इन विविध मतों के बीच जो भेद है वह अति स्वल्प है। शुश्रान च्यांग इन मतों का उल्लेख करके उनमें सामंजस्य स्थापित करते हैं । उनका वाक्य यह है-श्रात्म-धर्म के विकल्पों से चित्त में जिस वासना का परिपोष होता है, उसके बल से विज्ञान उत्पन्न होते ही श्रात्मधर्माकार में परिणत होता है । श्रात्मधर्म के यह निर्भास यद्यपि विधान से अभिन्न है, तथापि मिथ्या विकल्प के बल से यह ह्यार्थवत् अवभासित होते हैं। यही कारण है कि अनादिकाल से श्रामोपचार और धोपचार प्रवर्तित है। सब सदा से आत्मनिर्भास और धर्मनिर्भास को वस्तुसत् प्रात्मधर्म अवधारित करते हैं। किन्तु यह अात्मा और धर्म, जिनमें मूढ़ पुरूष प्रतिपन है, परमार्थतः नहीं है। यह प्राप्तिमात्र हैं। मिथ्या-वचि (मत ) से यह प्रवृत्त होते हैं, अत: यह आत्मधर्म संवृतितः ही हैं। पक्षिम की भाषा में यदि कहें तो कहना