पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५१२

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५२४ बौर-वर्ग-दर्शन होगा कि एक पूर्ववर्ती अभ्यासवश, सहा-स्वभाव के फलस्वरूप विशन अवधारित करता है कि उसका एक भाग ग्राहक है और दूसरा प्राय ( बालगत् )। विज्ञान की सत्यता--किन्तु यदि आत्मा और धर्म (प्राहक और प्राय) केवल संवृति-सत्य हैं, तो इनका उत्पादक विधान कौन सा सत्य है। शुमान वांग कहते हैं कि विज्ञान प्रामा और धर्म से अन्यया है, क्योंकि इसका परिणाम प्रात्मधर्माकार होता है। विज्ञान का अस्तित्व है, क्योंकि यह हेतु-प्रत्यय से उत्पन्न होता है । यह परतंत्र है, किन्तु यह वस्तुतः सर्वदा प्राम- धर्म-खमाव नहीं होता। किन्तु इसका निर्भास श्रात्मधर्म के श्राकार में होता है। अत: इसको भी संपति-त्य कहते हैं। दूसरे शब्दों में बाह्यार्थ केवल प्राप्ति हैं, और इनका प्रवर्तन मिथ्या- रुचि से होता है। अत: उनका अस्तित्व विशान-सदृश नहीं है। जैसे बायार्थ का अभाव है, वैसे विज्ञान का प्रभाव नहीं है । विज्ञान ही इन प्राप्तियों का, इन उपचारों का, उपादान है। क्योंकि उपचार निराधार नहीं होता । विज्ञान परतंत्र है, किन्तु द्रव्यता है । हम देखते हैं कि प्राचीन माध्यमिक मतवाद में और शुश्रान-वांग के काल के विशन- बाद में कितना अन्तर है । माध्यमिकों के मत में वस्तुतः विज्ञान और विज्ञेय दोनों का समान रूप से अभाव है। यह केवल लोकसंवृतिसत् हैं। विज्ञानवाद के मत में यदि विशेय मूग- मरीचिका है, तो विशन अपने स्वरूप में पूर्णतः द्रव्यसत् है। यह ऐसी प्रतिशा है जिसके करने का साहस असंग ने भी स्पष्ट रीति से नहीं किया | कम से कम उन्होंने ऐसा संकोच के साथ किया। किन्तु शुश्रान-च्वांग स्पष्ट हैं । बालार्थ केवल विज्ञान की प्राप्ति है । यह केवल लोक- संवृतिसत् है। इसके विपरीत विज्ञान, ओ इन प्रशस्तियों उपादान है, परमार्थसत् है। (पृ०११) बाम-ग्राहकी परीक्षा यह कैसे शात होता है कि बाह्यार्थ के बिना विज्ञान ही अर्थाकार उत्पन होता है। क्योंकि आत्मा और धर्म परिकल्पित हैं। इसके लिए शुश्रान-च्चांग कम से श्रामग्राह और धर्मग्राह की परीक्षा करते हैं। सांपोषिक मव की परीक्षा-पहले वह आत्मयाह को लेते है।सख्य और वैश- पिक के मत में आत्मा नित्य, व्यापक (या सर्वगत) और आकाशवत् अनंत है। शुभान-योग कहते है कि नित्य, व्यापक और अनंत श्रात्मा सेन्द्रियक काय में, वो वेदना से प्रभावित है, परि- च्छिल नहीं हो सकता । क्या प्रात्मा, जैसा कि उपनिषद् कहते हैं, सब जीवों में एक है । अथवा जैसा सास्य-वैशेषिक कहते हैं, अनेक हैं। पहले विकल्प में जब एक जीव कम करता है, कर्म- फल भोगता है, मोक्ष का लाभ करता है, तब सब बीव कर्म करते है, कर्म-फल का भोग करते है, मोच का लाभ करते है, इत्यादि । दूसरे विकल्प में (सांख्य ) सब सत्वो की व्यापक प्रात्माएं अन्योन्य-प्रतिवेध करती है, अतः श्रात्मा का स्वभाव मिश्र होगा। इसलिए यह नहीं कहा का सकता कि अमुक फर्म अमुक प्रात्मा का है, अन्य का नहीं है। पब एक मोच का लाम करता है, तब सब उसका लाम करेंगे क्योंकि बिन धमों की भावना और बिनका साचात्कार एक करता यह सब प्रात्मानों से संबद होंगे।