पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५१४

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४२६ बौद-वादन यह अचेतन है, चेतनायोग से चेतन होता है [बोधिचर्यादनार, १६.] । पहले विकरूप में आकाशवत् यह कर्ता, भोक्ता नहीं है। भारमग्राहकी हत्यसि इस श्राम-प्राह की उत्पत्ति कैसे होती है । श्रारम-प्राह सहज या विकल्पित है । सहज प्रात्म-माह-प्रथम प्रात्म-प्राह श्राभ्यन्तर हेतुवश अनादिकालिक वितथ वासना है, बो काय (या पाश्रय) के साथ (सह) सदा होती है | यह सहज श्रात्मनाह ( सत्कायदृष्टि ) मिथ्या देशना या मिथ्या विकल्प पर आश्रित नहीं है | मन स्वरसेन अालय-विज्ञान ( अष्टम विज्ञान ) अर्थात् मूल-विशान को श्रालंबन के रूप में ग्रहण करता है ( प्रत्येति, प्रालंबते)। यह स्वचित्त-निमित्त का उत्पाद करता है, और इस निमित्त को द्रव्यतः श्रामा अवधारित करता है। यह निमित्त मन का साक्षात् श्रालंघन है। इसका मूलप्रतिभू (बिम्ब, पाकिटाइप ) स्वयं श्रालय है। मन प्रतिबिम्ब का उत्पाद करता है। श्रालय के इस निमित्त का उपगम कर मन को प्रतीति होती है कि वह अपनी श्रात्मा को उपगत होता है। अथवा मनोविज्ञान पंच उपादानस्कंधों को ( विज्ञान-परिणाम ) श्रालंबन के रूप में गृहीत करता है,और स्वचित्त-निमित्त का उत्पाद करता है, जिसको वह श्रामा अवधारित करता है । दोनों अवस्थानों में यह चित्त का निमित्तभाग है, जिसे चित्त श्रात्मा के रूप में गृहीत करता है । यह बिम्ब मायावत् है। किन्तु यह अनादिकालिक माया है, क्योंकि अनादिकाल से इसकी प्रवृत्ति है। यह दो प्रकार के श्रामग्राह सूक्ष्म है, और इसलिए उनका उपच्छेद दुष्कर है । भावना- मार्ग में ही पुद्गल-शून्यता की अभीषण परम भावना कर बोधिसत्य इनका विश्कंभन, प्रहाण करता है। विकल्पित प्रारमग्राइ-दूसरा अात्मनाह विकल्पित है। यह केवल अायतर हतुवश प्रवृत्त नहीं होता। यह बाह्य प्रत्ययों पर भी निर्भर है । यह मिथ्या देशना और मिथ्या विकल्प से ही उत्पन्न होता है। इसलिए यह विकल्पित है। यह केवल मनोविज्ञान से ही संबद्ध है। यह श्रामग्राह भी दो प्रकार का है । एक वह श्रात्ममाह है, जिसमें प्रामा को स्कंधों के रूप में अवधारित करते हैं। यह सल्कायदृष्टि है। मिथ्यादेशनावश स्कंधों को बालंबन बना मनो- विज्ञान स्वचित-निमित्त का उत्पाद करता है, इस निमित्त का वितीरण, निरूपण करता है, और उसे द्रव्यतः प्रात्मा अवधारित करता है । दूसरा वह आत्मप्राह है, जिसमें आत्मा को स्कंधयति- रेकी अवधारित करते है । तौर्थिकों से उपदिष्ट विविध लक्षण के श्रात्मा को श्रालंबन बना मनो- विशन स्वचित्त-निमित्त का उत्पाद करता है; इस निमित्त का वितीरण, निरूपण करता है, और उसे द्रव्यतः श्रारमा अवधारित करता है। यह दो प्रकार के प्रात्मयाह स्थूल है। अतएव इनका उपच्छेद सुगम है । दर्शनमार्ग में बोधिसत्व सर्व धर्म की पुद्गलशुन्यता, भूततथता की भावना करता है, और प्रात्ममाह का विष्कमन और प्रहाण करता है।