पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मदिरामयाब ५१७ यात्मवाद का निराकरण और मूल-विज्ञान पुनः शुश्रान-च्चांग अात्मवादी के इस प्राधेप का विचार करते है कि यदि प्रात्मा द्रव्यतः नहीं है, तो स्मृति और पुद्गल प्रबन्ध के अनुपच्छेद का श्राप क्या विवेचन करते हैं। (पृ. २०) शुभान-यांग उत्तर में कहते हैं कि यदि प्रारमा नित्यस्थ है, तो चित्त की विविधा- वस्था कैसे होगी १ वह यह स्वीकार करते कि आत्मा का कारित्र विविध है, किन्तु उसका स्वभाव नित्यस्थ है । कारित्र स्वभाव से पृथक नहीं किया मकता, अतः यह नित्यस्थ है । स्वभाव कारित्र से पृथक् नहीं किया जा सकता, अत: यह विविध है । अनुभवसिद्ध श्राध्यात्मिक नित्यत्व ( स्पिरिचुअल कान्स्टेएट ) का विवेचन करने के लिए शुश्रान-च्चांग आत्मा के स्थान में मूल-विज्ञान का प्रस्ताव करते हैं, जो सब सत्वों में होता है, और नो एक अन्याकृत समाग-संतान है। इसमें सब सालव और अनासव समुदाचरित धर्मों के के बीच होते हैं। इस मूल-विज्ञान की क्रिया के कारण और बिना किसी आत्मा के संप्रधारण के सब धर्मों की उत्पत्ति पूर्व बीज अर्थात् वासना के बल से होती है । यह धर्म पर्याय से अन्य बीजों को अनादित करते हैं, और इस प्रकार आध्यात्मिक संतान अनंत काल तक प्रवा- हित होता है। किन्तु यह श्राक्षेप होगा कि आपका लोकधातु केवल सदाकालीन मनम-कर्म है, कारक कहाँ है ? एक द्रव्यसत् अामा के अभाव में कर्म कौन करता है ? कर्म का फल कौन भोगता है । शुश्रान-वांग उत्तर देते हैं कि जिसे कारक करते है वह कर्म है, परिवर्तन है। किन्तु तीर्थकों का आत्मा श्राकाश के तुल्य निल्यस्थ है, अतः यह कारक नहीं हो सकता । चित्त-चैत्त के हेतु प्रत्ययवश प्रबंध का अनुपच्छेद, कर्म-क्रिया और फलभोग होते हैं। अात्मवादी पुन. कहते हैं कि आत्मा के बिना, एक अध्यापक नित्य वस्तु के अभाव में श्राप बौद्ध जो हमारे सहरा संसार मानते हैं, संसार का निरूपण किस प्रकार करते हैं। यदि श्रात्मा द्रव्यतः नहीं है, तो एक गति से दूसरी गति संसरण कौन करता है, कौन दुःख का भोग करता है, कौन निर्माण के लिए, प्रयत्नशील होता है, और किसका निर्वाण होता है। शुश्रान-चांग का उत्तर है कि श्राप किस प्रकार अात्मा को मानते हुए संसार का निरूपण करते है । जब आत्मा का लक्षण यह है कि यह नित्य और जन्म-मरण से विनिर्मुक्त है, तब इसका संसरण कैसे हो सकता है ? संस का निरूपण एकमात्र बौद्धों के संतान के सिद्धांत से हो सका है। सत्व नित्त-संतान है, और यह क्लेश तथा सारव कर्मों के बल से गतियों में संसरण करते हैं । अतः अामा द्रव्यसत् स्वभाव नहीं है। केवल विज्ञान का अस्तित्व है । पर विशान पूर्व विज्ञान के तिरोहित होने पर उत्पन्न होता है, और अनादिकाल से इनकी हेतु-फलपरंपरा, इनका संतान होता है।