पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५२०

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५३२ बौद-धर्म-दर्शन इस प्रकार विविध वादों का निराकरण करके शुमान च्वांग परमाणु पर विज्ञानवाद का सिवान्त वर्णित करते हैं। परमार पर विज्ञानवादी सिदान्त योगाचार शस्त्र से नहीं, किन्तु चित्त से स्थूलरूप का विभाग पुनः पुनः करते हैं; यहाँ तक कि वह अविभजनीय हो जाता है। सप के इस पर्यन्त को को सांवत है, वह परमाणु की संज्ञा देते हैं। किन्तु यदि इम रूप का विभजन करते रहें, तो परमाणु अाकाशवत् प्रतीत होगा, और रूप न रहेगा; अतः हमारा यह निष्कर्ष है कि रूप विशन का परिणाम है, और परमाणुमय + प्राविध रूपों के इम्पत्य का निषेध पूर्वोक्त विवेचन सप्रतिषरूप के संबन्ध में है। जब सप्रतिष रूप का द्रव्यत्व नहीं है, और यह विज्ञान का परिणाम है, तो अप्रतिध रूप तो और भी अधिक सद्धर्म नहीं है। सर्वास्तिवादी के प्रतिष रूप काय-विशति-रूप, वाग-विशप्ति-रूप, और अविशति- रूप हैं। उनका काय-विशति-रूप संस्थान है। किन्तु संस्थान विभजनीय है, और दीर्घादि के परमाणु नहीं होते [कोश, ४ । पृ०४,६]; अतः संस्थान रूप द्रव्यतः नहीं है। वाग्विज्ञप्ति शब्दस्वभाव नहीं है । एक शब्द-क्षण विज्ञापित नहीं करता, और शब्द-क्षयों की संतान द्रव्य- सत् नहीं है। वस्तुतः विशान शन्द-संतान में परिणत होता है। उपचार से इस संतान को वाग्विजति कहते हैं। प्रविशति बब विज्ञप्ति द्रव्य-सत् नहीं है, तो अविज्ञप्ति कैसे द्रव्य-सत् होगी। चेतना (ध्यानभूमि की ) या प्रणिधि ( प्रातिमोक्षसंवर या असंबर ) को उपचार से प्रविशप्ति कहते हैं। दूसरे शब्दों में यह या तो एक चेतना है, जो अकुशल काय-वाग्विप्ति कर्म का निरोध करती है, या यह उत्कर्षावस्था में एक प्रधान चेतना के बीज है, जो काय-वाक् कर्म के जनक है । अतः अविज्ञप्ति प्रशस्ति-सत् है । विप्रधुलों के बम्पत्व का निषेष-विप्रयुक्त मी द्रव्य-सत् नहीं है । प्रालि, माहि तथा अन्य विप्रयुक्तों की स्वरूपतः उपलब्धि नहीं होती । पुन: रूप तथा चित्त-वैत्त से पृथक् इनका कोई कारित्र नहीं दीख पड़ता । अतः यह रूप चित्त-चैच के अवस्था-विशेष के प्रप्तिमात्र है। समागता भी द्रव्य-सत् नहीं है । सर्वास्तिवादी कहते हैं कि सत्वों में सामान्य बुद्धि और प्राप्ति का कारण समागता नामक द्रव्य है । यह विप्रयुक्त है। यथा कहते हैं। अमुक मनुष्यों की सभागता का प्रतिलाम करता है; अमुक देवों को सभागता का प्रतिलाम करता है । युवान- बाग कहते हैं कि यदि सत्वों को सभागता है, तो वृक्षादि की भी सभागता माननी चाहिये । पुनः समागताओं की भी एक सभागता होनी चाहिये । हम यह भी कह सकते हैं कि समान कर्मान्त के मनुष्य और ममान छन्द के देव सभागता-वश है। वस्तुतः सभागता नामक किसी न्य विशेष के कारण सत्वों के विविध प्रकारों में साइश्य नहीं होता। अमुक अमुक प्रकार के