पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५२१

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मधदशसम्मान ४३३ सखों को जो कायिक और चैतसिक धर्म मामान्य है, उनको आगम सभागता संशा से प्रसप्त करता है। जीवितेन्द्रिय-के संबन्ध में शुश्रान-बांग कहते हैं कि यह कर्मजनित शक्ति-विशेष, और यह उन बीजोंपर श्राश्रित है, जो श्रालय-विज्ञान के हेतु-प्रत्यय है। इस सामध्य-विशेष के कारण भवविशेष के रूप-चित्त-चैत्त एक काल तक अवस्थान करते हैं। प्रालय-विज्ञान एक अविच्छिन्न स्रोत है । एक भव से दूसरे भव में इसका निरन्तर प्रवर्तन होता है । हेतु-प्रत्यय-वश इसका परिपोष होता है। उदाहरण के लिए हम नील ( प्रत्युत्पन्न धर्म ) का चिन्तन करते हैं, नील के संबन्ध में हमारी वाग्विशप्ति होता है । यह वाक् , यह चित्त, अर्थात् यह व्यवहार बीबों को उत्पन्न करता है, जो नील के अपूर्व चित्तों का उत्साद करेंगे । उक्त हेतु-प्रत्यय के अतिरिक्त एक अधिपति-प्रत्यय भी है । यह कर्म है । यह कर्म जो शुभ या अशुभ है, अन्याकृत फल का जनक होता है; अर्थात् दुःख श्रालय-विज्ञान का बना होता है । इसलिए कर्म विपाक- हेतु है । यह विपाक-बीज का उत्पाद करता है । जीवितेन्द्रिय से प्रथम प्रकार के बीज, न कि विपाक-बीब, इष्ट है। यह बीज ( नाम-वाक् ) जो हेतु-प्रत्यय है, प्रालय का पोषण करते हैं; जब कि दूसरे प्रकार के बीज अर्थात् विपाक-बीज ग्रालय की गति, अवस्था आदि को निर्धारित प्रसंज्ञि-समापनि, निरोध-समापति अचिसक और प्रासंशिक-को शुभान-वांग द्रव्य-सत् नहीं मानते । वह कहते हैं कि यदि असंज्ञि अवस्था का व्याख्यान करने के लिए इन धर्मों की व्यवस्था श्रावश्यक है, जिनके विषय में कहा जाता है कि यह चित्त का प्रतिबन्ध करते हैं,तो एक प्रारूप्य-समापत्ति नामक धर्म भी मानना पड़ेगा,जो रूप का प्रतिबन्धक हो । चित्त का प्रतिबन्ध करने के लिए किसी सद्धर्म की कल्पना की आवश्यकता नहीं है। जब योगी इन समापत्तियों की भावना करता है,तब वह औदारिक और चल चित्त-चैत्त की विदूषणा से प्रयोग का श्रारंभ करता है । इस विदूषणा के योग से वह एक प्रगीत अवधि-प्रणिधान का उत्पाद करता है, वह अपने चित्त-चेत्तों को उत्तरोत्तर सूक्ष्म और अणु बनाता है । यह प्रयोगा- वस्था है । जब चित्त सूक्ष्म-सूक्ष्म हो जाता है, तब वह श्रालय-विज्ञान को भावित करता है, और इस विज्ञान में विदूषणा चित्त के अधिमात्रतम बीज का उत्पाद करता है । इस बीज के योग से नो चित्त-चैत्त का विध्वंभन करता है, सब औदारिक और चंचल चित्त-चैत का काल-विशेष के लिए समुदाचार नहीं होता। इस अवस्था को उपचार से समापत्ति कहते हैं । संशि-समापत्ति में यह बीन सामय होता है, और निरोध-समापत्ति में अनासव होता है। श्रासंशिक के संबध में इनका यह मत है कि असशिदेवों के प्रवृत्ति विज्ञानों के असमुदाचार को उपचार से प्रासं- शिक कहते है। जाति, स्थिति, जरा, निरोप-इन संस्कृत धर्मों को भी हीनयानवादी द्रव्य-सत् मानते हैं। यह संस्कृत के संस्कृत लक्षण है । शुमान-ध्वांग इसके विरोध में नागार्जुन की दी हुई आलोचना देते हैं । अतीत और अनागत अभ्व द्रव्य-सत् नहीं है। वह अभाव है । अत: यह चार लक्षण प्रचप्ति-सत् है। पूर्वनय के अनुसार अन्य विप्रयुक्तों का भी प्रतिषेध होता है। ५५