पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३०

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४५२ बीव-धर्म-दर्शन मानता है। किन्तु यह चार चिसमात्र है। यथा लंकावतार (१०।१०१ ) में कहा है-"क्योंकि चित्त अपने में अभिनिविष्ट है, अतः बायार्थ के सदृश चित्त का प्रवर्तन होता है। दृश्य नहीं है, चित्तमात्र है।" शुश्रान-च्चांग वालंबनवाद का वर्णन करते हैं। बाल वन विविध है-स्थान और उपादि। १. स्वाम-साधारण बीजों के परिपाक के बल से विपाक-विज्ञान भाजन- लोक के आभास में अर्थात् महाभूत और भौतिक के श्राभास में परिणत होता है । शुश्रान-च्वाँग स्वयं एक प्राक्षेर के परिहार की चेष्टा करते हैं। वह कहते हैं कि “प्रत्येक सत्व के विज्ञान का परिणाम उसके लिए इस प्रकार होता है, किन्तु इस परिणाम का फल सर्वसाधा- रण है। इस कारण भाजनलोक सत्र सत्वों को एक-सा दीखता है । यथा दीपसमूह में प्रत्येक दीप का प्रकाश पृथक् होता है, किन्तु दोरसमूह का प्रकाश एक ही प्रकाश प्रतीत होता है।" अतः भिन्न सत्वों के विज्ञान के बीज साधारण बीज कहलाते हैं, क्योंकि भिन्न सत्व उन वस्तुत्रों के उत्पादन में सहयोग करते हैं जिनका श्राभास सत्र सत्यों को होता है। लोकधातु की सृष्टि का हेतु बहुत कुछ वैशेषिक और जैनदर्शन से मिलता है। दूसरी ओर शुश्रान-च्याँग कहते हैं कि यदि साधारण विज्ञान भाजनलोक में परिणत होता है, तो इसका कारण यह है कि भाजनलोक उस सेन्द्रियक-काय का श्राश्रय या भोग होगा जिसमें यह विज्ञान परिणत होता है । अतः विज्ञान का परिणाम उस भाजनलोक में होता जो उस काय के अनुरूप है, जिसमें यह परिणत होता है । यहाँ हमको एक सर्वसाधारण या सार्वभौमिक विज्ञान की झलक मिलती है। यह एक लोकधातु की दृष्टि इसलिए करता है जिसमें प्रत्येक चित्त-संतान काय-विशेष का उत्पाद कर सके । एक आक्षेप यह है कि जो लोकधातु सत्वों का अभी श्रावास नहीं है या जो निर्जन हो गया है, उसमें विज्ञानवाद कैसे युक्तियुक्त है ? किस विज्ञान का यह लोकधातु परिणाम है ? शुश्रान-च्वाँग इस श्राक्षेप के उत्तर में कहते हैं कि यह अन्य लोकधातुओं में निवास करनेवाले सत्यों का परिणाम है । हमसे कहा गया है कि लोकधातु सत्यों का साधारण भोग है। किन्तु प्रेत, मनुष्य, देव (विंशतिका ३) एक ही वस्तु का दर्शन नहीं करते, अर्थात् वस्तुओं को एक ही आकार में नहीं देखते । शुश्रान-वांग कहते हैं कि इन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार इस प्रश्न का भी विवेचन होना चाहिये। २. उपादि-बीज और सेन्द्रियक काय । वीर-यह सासव धर्मों के सर्व बीज है, जिनका धारक विपाक-विज्ञान है, जो इस विज्ञान के स्वभाव में ही संग्रहीत है और जो इसलिए उसके प्रालंबन है। अनामव धर्मों के बीज विशान पर संकुचित रूप में श्राश्रित है, क्योंकि वह उसके स्वभाव में संग्रहीत नहीं है, इसलिए, वह उसके बालंबन नहीं है। यह नहीं है कि वह विज्ञान