पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३१

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७७३ से विप्रयुक्त है, क्योंकि भूततथता के तुल्य वह विज्ञान से पृथक् नहीं हैं । अतः उनके अस्तित्व की प्रतिज्ञा कर हम विशप्तिमात्रता के सिद्धान्त का विरोध नहीं करते। सैविपकमाय-मेरा विधाक-विज्ञान अपने बीज-विशेष के बल से (१) रूपीन्द्रिय में परिणत होता है जो, हम जानते हैं, सूक्ष्म और अतीन्द्रिय रूप है; (२) काय में परिणत होता है जो इन्द्रियों का आश्रयायतन है। किन्तु अन्य सत्वों के बीज-वह सत्व जो मेरे काय को देखते हैं मेरे काय में उसी समय परिणत होते हैं, जब मेरे अपने बीज,परिणत होते हैं । यह साधारण बीज (शक्ति) हैं। साधारण बीज के परिपाक के बल से मेरा विपाक-विज्ञान दूसरों के इन्द्रियाश्रयायतन में परिणत होता है। यदि ऐसा न होता तो मुझे दूसरों का दर्शन, दूसरों का भोग न होता । स्थिरमति और दूर जाते हैं। उनका मत है कि किसी सत्व विशेष का विषाक-विज्ञान दूसरों के इन्द्रियों में परिणत होता है। उनका कहना है कि यह मत युक्त है, क्योंकि मध्यान्तविभाग में कहा है कि विशान स्व-पर-याश्रय के पंचेन्द्रियों के सदृश अबभासित होता है। एस श्राश्रय का विज्ञान दूसरे के इन्द्रियाश्रयायतन में इसलिए परिणत होता है कि निर्वाण-प्रविष्ट सत्व का शव अथवा अन्य भूमि में संचार करनेवाले सत्व का शव दृश्यमान रहता है । निवृत के विज्ञान के तिरोहित होनेपर उसके शव में परिणाम नहीं होगा, अतः यह कुछ काल तक अन्य सत्यों के विज्ञान-परिणाम के रूप में श्रस्थान करता है। हमने देखा है कि विज्ञान का परिणाम सेन्द्रियक काय और भाजनलोक (असत्व रूप) में होता है। इनका साधारणतः सर्वदा संतान होता है । प्रश्न है कि श्रष्टम विज्ञान का परिणाम चित्त-चैत्त में, विप्रयुक्त में, प्रसंस्कृत में, अभाव धर्मों में क्यों नहीं होता और इन विविध प्रकारों को वह श्रालंबन क्यों नहीं बनाता । विद्वानों का परिणाम दो प्रकार का है । सासव विज्ञान का सामान्यतः द्विविध परिणाम होता है-(१) हेतु-प्रत्यय-वश परि- णाम, (२) विकल्प या मनस्कार के बल से परिणाम | पहले परिणाम के धर्मों में क्रिया और वास्तविकता होती है । दूसरे परिणाम के धर्म केवल ज्ञान के विषय है । किन्तु अष्टम-विज्ञान का पहला परिणाम ही हो सकता है, दूसरा नहीं । अतः रूपादि थों में, जो अष्टम विज्ञान से प्रवृत्त होते हैं, क्रिया होनी चाहिये और उनमें क्रिया होती है । यह नहीं माना जा सकता कि चित्त-चैत्त इसके परिणाम है। इसका कारण यह है कि चित्त-वैस्त, जो अधम विज्ञान के केवल निमित्तभाग है, बालंबन का ग्रहण न करेंगे और इस- लिए उनमें वास्तविक क्रिया न होगी। श्रादे श्राप कहते हैं कि चित्त-चैत्त की उत्पत्ति अष्टम-विज्ञान से होती है, अतः इसका चित्तवैत्त में परिणत होना आवश्यक है ।