पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३३

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अष्टादश अध्याय Be* १. पार्थ—स्पर्श का लक्षण इस प्रकार है:-पर्श त्रिकसंनिपात है जो विकार-परिच्छेद है और जिसके कारण चित्त-चैत्त विश्य का स्पर्श करते हैं । इन्द्रिय, विषय और विज्ञान यह तीन 'त्रिक' हैं। इनका समवस्थान 'त्रिक-संनिपात' है। यथा चक्षु, नील, चक्षुर्विज्ञान, यह तीन बीजावस्था में पहले से रहते हैं । स्पर्श भी बीजा- वस्था में पहले से रहता है । अपनी उत्पत्ति के लिए पर्श इन तीन पर आश्रित है। इसकी उत्पत्ति होने पर इन तीन का संनिपात होता है। श्रतः सर्श को त्रिक-संनिपात कहते हैं। संनिपात के पूर्व त्रिक में चित्त-चैत्त के उत्पाद का सामर्थ्य नहीं होता । किन्तु संनिपात के क्षण में वह इस सामर्थ्य से समन्वागत होते हैं । इस परिवर्तन, इस प्राप्त सामर्थ्य को विकार कहते हैं। स्पर्श इस विकार के सदृश होता है । अर्थात् चित्त-वैत्तों के उत्पाद के लिए इसमें उस सामर्थ्य के सदृश सामर्थ्य होता है, जिससे त्रिक विकारावस्था में समन्वागत होता है । अतः स्पर्श को विकार-परिच्छेद कहते हैं, क्योंकि यह विकार का परिच्छेद ' ( सदृश, पौधा-कलम) है। सर्श-हर में त्रिक में विकार होता है । किन्तु स्पर्श के उत्पाद में इन्द्रिय-विकार की प्रधानता है। इसीलिए, स्थिरमति पर्श को 'इन्द्रियविकार-परिच्छेद' कहते हैं (पृ० २०)। स्पर्श का स्वभाव है कि यह चित्त-चैत्त का संनिपात इस तरह करता है जिसमें बिना विसरण के वह विषय का स्पर्श करते हैं । स्थिरमति का व्याख्यान भिन्न है। "त्रिक का कार्यकारणभाव से समवस्थान त्रिक- संनिपात है । जब त्रिक-संनिपात होता है तब उसी समय इन्द्रिय में विकार उत्पन्न होता है । यह विकार सुख-दुःखादि वेदना के अनुकूल होता है । इस विकार के सदृश विषय का सुखादि वेदनीयाकार परिच्छेद ( ज्ञान ) होता है । इस परिच्छेद को स्पर्श कहते हैं । यह 'स्पर्श' इन्द्रिय का स्पर्श करता है, क्योंकि यह इन्द्रिय विकार के सदृश है । अथवा यो कहिए कि यह इन्द्रिय से स्पृष्ट होता है । इसीलिए इसे स्पर्श कहते हैं । 'स्पर्श' का कर्म मनस्कारादि अन्य चार चैत्तों का संनिश्रयत्व है। सूत्र में कहा है कि वेदना, संज्ञा, संस्कार का प्रत्यय स्पर्श है । इसीलिए सूत्र में उक्त है कि इन्द्रिय-विषय इन दो के संनिपात से विज्ञान की उत्पत्ति होती है, सर्श की उत्पत्ति त्रिक-संनिपात से होती है और अन्य चैत्तों की उत्पत्ति इन्द्रिय-विषय-विज्ञान-सर्श-चतुक से होती है। अभिधर्मसमुच्चय ( स्थिरमति इसका अनुसरण करते हैं ) की शिक्षा है कि स्पर्श वेदना का निभय है । सुखवेदनीय स्पर्श के प्रत्ययवश सुखावेदना उत्पन्न होती है । २. मनस्कार-मनस्कार चित्त का श्राभोग (श्रा जन ) है । इसका कर्म बालंबन में चितका अार्जन है । संघभद्र के अनुसार मनस्कार चित्त को श्रालंबन के अभिमुख करता है । ..पथा पुन पिसाब परिश।