पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३४

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१५६ बौर-धर्म-दर्शन अभिवर्म-समुच्चय के अनुसार ( संघभद्र के मी) मनस्कार श्रालंबन में चित्त का धारण करता है । शुश्रान-बांग इन व्याख्यानों को नहीं स्वीकार करते। उनका कहना है कि पहले को स्वीकार करने से मनस्कार सर्वग नहीं होगा और दूसरा व्याख्यान मनस्कार और समाधि को मिला देता है। ३. वेदना-वेदना का स्वभाव विषय के बाहादक, परितापक और इन दोनों श्राकारों से विविध स्वरूप का अनुभव करना है । वेदना का कर्म तृष्णा का उत्पाद करना है, क्योंकि यह संयोग, वियोग, तथा न संयोग न वियोग की इच्छा उत्पन्न करती है । संघभद्र के अनुसार वेदना दो प्रकार की है, विषय-वेदना, स्वभाव-वेदना । पहली वेदना स्वालंबन-विस्य का अनुभव है, दूसरी वेदना तत्सहगत स्पर्श का अनुभव है । इसीलिए भगवान् सुखवेदनीय स्पर्श श्रादि का उल्लेख करते हैं । केवल द्वितीय वेदना 'वदना-स्वलक्षण' क्योंकि प्रथम सामान्य चैत्तों से विशिष्ट नहीं है। सभी चैत्त विषय निमित्त के अनुभव है यह मत अयथार्थ है । १.वेदना सहज स्पर्श को बालंबन नहीं बनाती । २.इस आधार पर कि यह स्पर्श सहश उत्पन होता है, हम नहीं कह सकते कि वेदना स्पर्श का अनुभव करती है, क्योंकि उस अवस्था में सर्व निष्यन्द-फल वेदनास्वभाव होगा । ३. यदि वेदना स्वहेतु अर्थात् स्पर्श का अनुभव करती है, तो इसे 'हेतुवेदना' कहना चाहिये, 'स्वभाववेदना' नहीं । ४. श्राप नहीं कह सकते कि जिस प्रकार राजा अपने राज्य का उपभोग करता है, उसी प्रकार वेदना स्पर्शज वेदना के स्वभाव का अनुभव करती है और इसलिए इसे ( वेदना ) स्वभाववेदना कहते हैं। ऐसा करने से आपको अपने इस सिद्धांत का परित्याग करना पड़ेगा कि स्वसंवेदन नहीं होता। ५. यरि श्राप उसे इसलिए स्वभाववेदना की संज्ञा देते हैं, क्योंकि यह कभी अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करती तो सर्व धर्म को स्वभाववेदना कह सकते हैं। वस्तुतः विषय-वेदना अन्य चैत्तों से पृथक् है, क्योंकि यदि अन्य चैत्त विम्य का अनुभव करते है तो केवल वेदना विषय का अनुभव प्राहादक, परितापक श्राकार में करती है। ४. संज्ञा--संज्ञा का स्वभाव विषयनिमित्त का उद्ग्रहण है। विषय बालंबन का विशेष है, यथा नील-पीतादि । इससे बालंबन की व्यवस्था होती है। उग्रहण का अर्थ निरूपण है, यथा बब हम यह निरूपित करते हैं कि यह नीला है, पीत नहीं है । संज्ञा का कर्म ( जब यह मानसी है ) नाना अभिधान और प्रशसि का उत्पाद है। बत्र विषय के निमित्त व्यवस्थित होते है-यथा यह नील है, नील से अन्य नहीं है तभी इन निमित्तों के अनुरूप अभिधान का उत्पाद हो सकता है। ५. चेतना-चेतना का स्वभाव चित्त का अभिसंस्कार करना है। इसका कर्म चित का कुशलादि में नियोजन है । अर्थात् चेतना कुशलादि संबन्ध में विश्य का ग्रहण करती है, विषय के इस निमित्त का ग्रहण कर वह कर्म करती है। वह चित्त का इस प्रकार नियोजन करती है कि चित्त कुशल, अकुशल, अन्यात का उत्पाद करता है।