पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३५

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अदिश अध्याय बालब-विज्ञान की वेदमा यह अालय-विज्ञान स्पष्ट वेदनाओं का न प्रभव है, न बालंबन । वसुबन्धु कहते हैं- "उपेक्षा वेदना तत्र' यहाँ की वेदना उपेक्षा है। श्रालय उपेक्षा-वेदना से संप्रयुक्त है। श्रालय- विज्ञान और अन्य दो वेदनाओं में अनुकूलता नहीं है । यह विज्ञान का आकार (=दर्शनभाग) अपटुतम है, और इसलिए उपेक्षा-वेदना से इसकी अनुकूलता है। यह विज्ञान विषय के अनु- कूल-अतिक्ल निमित्तों का परिच्छेद नहीं करता। यह सूक्ष्म है और अन्य वेदनाएं औदारिक हैं। यह एकजातीय, अविकारी है और अन्य वेदनाएं विकारशील हैं। यह अविच्छिन संतान है और अन्य वेदनाओं का विच्छेद होता है। श्रालय विज्ञान से संप्रयुक्त वेदना विधाक है, क्योंकि यह प्रत्यय का आश्रय न लेकर केवल आक्षेपक कर्म से अभिनिवृत्त होती है। यह वेदना कुशलाकुशल कर्म के बल से स्वरस- वाहिनी है । अतः यह केवल उपेक्षा हो सकती है। अन्य वेदनाएं विषाक नहीं है, किन्तु विपाकज है, क्योंकि वह प्रत्यय पर, अनुकूल-प्रतिकूल विश्य पर, अाश्रित है । प्राय की यह वेदना श्राम-प्रत्यय का प्रभव है। यदि सत्व अपने प्रालय को स्वकीय अभ्यन्तर अामा अवधारित करते हैं, तो इसका कारण यह है कि प्रालय-विज्ञान सदाकालीन और सभाग है । यदि यह सुखा और दुःखावेदनाओं से संप्रयुक्त होता तो यह असभाग होता, और इसमें श्रामसंज्ञा का उदय न होता। यदि श्रालय उपेक्षा से संप्रयुक्त है तो यह अकुशल कर्म का विपाक कैसे हो सकता है । श्राप स्वीकार करते हैं कि शुभ कर्म उपेक्षा-वेदना का उत्पाद करते हैं (कोश, ४ । पृ० १०६)। इसी प्रकार अकुशल कर्म को समझना चाहिये। वस्तुतः यथा अव्याकृत कुशल-अकुशल के विरुद्ध नहीं है ( कुशल-अकुशल कर्म अव्याकृत धर्म का उत्पाद करते हैं ), उसी प्रकार उपेक्षा- वेदना सुख-दुःख के विरुद्ध नहीं है । श्रालय-विज्ञान विनियत चैत्तों से संप्रयुक्त नहीं है। वस्तुतः 'छन्द' अभिप्रेत वस्तु की अभिलाषा है । प्रालय कर्मवल से स्वरसेन प्रवर्तित होता है और अभिलाष से अपरिचित है। 'अधिमोक्ष' निश्चित वस्तु का अवधारण है। श्रालय-विज्ञान अपटु है, और अवधारण से वियुक्त है। 'स्मृति' संस्कृत वस्तु का अभिस्मरण है। श्रालय दुर्बल है और अभिस्मरण से रहित है । 'समाधि' चित्त का एक अर्थ में प्रासंग है। श्रालय का स्वरसेन प्रवर्तन होता है, और यह प्रतिक्षण नवीन विषय का ग्रहण करता है। 'प्रजा' वस्तु के गुण आदि का प्रविचय है। श्रालय सक्ष्म, अस्पष्ट और प्रविचय में अत्तमर्थ है। विधाक होने से श्रालय कुशल या क्लिष्ट चैतों से संप्रयुक्त नहीं होता । कोकृत्यादि नार अनियत ( या अव्याकृत ) धर्म विच्छिन है। यह विपाक नहीं हैं। माकप और उसके वैचों का प्रकार वसुबन्धु कहते हैं कि श्रालय-विज्ञान अनिवृत-अव्याकृत है।