पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दौर-गम-दर्शन धर्म तीन प्रकार के हैं-कुशल, अकुशल,अव्याकृत । अन्याकृत दो प्रकार का है-निवृत, अनियत । जो मनोभूमिक श्रागन्तुक उपक्लेशों से आवृत है, वह निवृत है। इसका विपर्यय अनिवृत है। अनिवृत के चार प्रकार हैं, जिनमें एक विपाक है। (कोश | पृ० ३१५) श्रालय-विज्ञान एकान्तेन अनिवृताव्याकृत है, और इसका प्रकार विपाक है । यदि यह कुशल होता तो प्रवृत्ति (समुदय-दुःख) असंभव होती। यदि यह क्लिष्ट अर्थात् अकुशल या निवृतान्यात होता तो निवृत्ति (निरोध-मार्ग) असंभव होती। कुशल या क्लिष्ट होने से यह वासित न हो सकता। अतः प्रालय अनिवृताव्याकृत है। इसी प्रकार प्रालय से संप्रयुक्त स्पर्शादि अनिवृताव्याकृत है। विपाक से संप्रयुक्त स्पर्शादि भी विपाक है। उनके आकार और बालंबन भी प्रालय के समान अपरिच्छिन्न हैं। अन्य चार और श्रालयविज्ञान से यह नित्य अनुगत है। प्रतीत्यसमुत्पाद क्या यह प्रालय-विज्ञान एक और अभिन्न प्रासंसार रहता है । अथवा संतान में इसका प्रवर्तन होता है। क्षणिक होने से यह एक और अभिन्न नहीं है । यह श्रालय-विज्ञान प्रवाहवत् खोत में वर्तमान होता है । वसुबन्धु कहते हैं-"तच्च वर्तते सोतसौत्रवत्" । अतः यह न शाश्वत है, न उच्छिन्न । अनादिकाल से यह संतान बिना उच्छेद के अध्युपरत प्रवाहित होता है। यह संतान बीजों को धारण करता है, और उनको सुरक्षित रखता है। यह प्रतिक्षण उत्पन और निरुद्ध होता है । यह पूर्व से अपर में प्रवर्तित होता है। इसका हेतु-फलभाय है । यह उत्पाद और निरोध है । अतः यह प्रात्मवत् एक नहीं है, प्रधानवत् (सांख्य) शाश्वत नहीं है । 'तच वर्तते इससे शाश्वत संशा व्यावृत्त होती है । 'खोत' शब्द से उच्छेद संज्ञा व्यावृत्त होती है। श्रालय-विशन के संबन्ध में शुश्रान-बांग जो कुछ यहाँ कहते हैं, वह प्रतीत्यसमुत्पाद पर भी लागू होता है। प्रतीत्यसमुत्पाद हेतु-फल-भाव की धर्मता है। यह स्रोत के प्रोष के तुल्य शाश्क्तत्व और उच्छेद से अपरिचित है। लय-विज्ञान के लिए भी यही दृष्टान्त है । यथा स्रोत का प्रवाह बिना शाश्वतत्व या उच्छेद के संतान रूप में सदा प्रवाहित होता है, और अपने साथ तृणकाष्ठ-गोमयादि को ले जाता है, उसी प्रकार प्रालय-विज्ञान भी सदा उत्पन्न और निकट संतान के रूप में न शाश्वत, न उच्छिन्न हो, क्लेश-कर्म का आवाहन कर सत्व को सुगति या दुर्गति में ले जाता है, और उसका संसार से निःसरण नहीं होने देता | जिस प्रकार एक नदी वायु से विताड़ित हो तरंगों को उत्पन्न करती है किन्तु उसका प्रवाह उच्छिन नहीं होता; उसी प्रकार अालय-विज्ञान हेतु-प्रत्ययवश प्रत्युत्पन्न विज्ञान का उत्पाद करता है, किन्तु उसके प्रवाह का विच्छेद नहीं होता। जिस प्रकार जल के तल पर पत्ते और भीतर मछलियां होती है, और नदी का प्रवाह प्रवर्तित रहता है। उसी प्रकार प्रालय-विज्ञान प्राभ्यन्तर बीज और बाम चैत्तों के सहित सदा प्रवाहित होता है। यह दृष्टान्त प्रदर्शित करता है कि प्रालय-विज्ञान हेतु-फल-भाव है, जो अनादि, अशाश्वत, अनुच्छिन है। सोत का यहाँ अर्थ हेछ-पल की निरन्तर प्रवृत्ति है। इस विज्ञान की सदा से यह धर्मता रही है कि प्रतिक्षण फ्लो-